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अबो॑ध्य॒ग्निः स॒मिधा॒ जना॑नां॒ प्रति॑ धे॒नुमिवाय॒तीमु॒षास॑म्। य॒ह्वाऽइ॑व॒ प्र व॒यामु॒ज्जिहा॑नाः॒ प्र भा॒नवः॑ सिस्रते॒ नाक॒मच्छ॑ ॥२४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अबो॑धि। अ॒ग्निः। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। जना॑नाम्। प्रति॑। धे॒नुमि॒वेति॑ धे॒नुम्ऽइ॑व। आ॒य॒तीमित्या॑ऽय॒तीम्। उ॒षास॑म्। उ॒षस॒मित्यु॒षस॑म्। य॒ह्वा इ॒वेति॑ य॒ह्वाःऽइ॑व। प्र। व॒याम्। उ॒ज्जिहा॑ना॒ इत्यु॒त्ऽजिहा॑नाः। प्र। भा॒नवः॑। सि॒स्र॒ते॒। नाक॑म्। अच्छ॑ ॥२४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:24


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (समिधा) प्रज्वलित करने के साधनों से यह (अग्निः) अग्नि (अबोधि) प्रकाशित होता है, (आयतीम्) प्राप्त होते हुए (उषासम्) प्रभात समय के (प्रति) समीप (जनानाम्) मनुष्यों की (धेनुमिव) दूध देनेवाली गौ के समान है। जिस अग्नि के (यह्वा इव) महान् धार्मिक जनों के समान (प्र) उत्कृष्ट (वयाम्) व्यापक सुख की नीति को (उज्जिहानाः) अच्छे प्रकार प्राप्त करते हुए (प्र) उत्तम (भानवः) किरण (नाकम्) सुख को (अच्छ) अच्छे प्रकार (सिस्रते) प्राप्त करते हैं, उस को तुम लोग सुखार्थ संयुक्त करो ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे दुग्ध देनेवाली सेवन की हुई गौ दुग्धादि पदार्थों से प्राणियों को सुखी करती है और जैसे आप्त विद्वान् विद्यादान से अविद्या का निवारण कर मनुष्यों की उन्नति करते हैं, वैसे ही यह अग्नि है, ऐसा जानना चाहिये ॥२४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

(अबोधि) प्रबुध्यते (अग्निः) (समिधा) प्रदीपसाधनैः (जनानाम्) मनुष्याणाम् (प्रति) (धेनुमिव) यथा दुग्धदां गां तथा (आयतीम्) प्राप्नुवतीम् (उषासम्) उषसं प्रभातम्। अत्र अन्येषामपि [अ०६.३.१३७] इति दीर्घः (यह्वा इव) महान्तो धार्मिका जना इव (प्र) (वयाम्) व्यापिकां सुखनीतिम् (उज्जिहानाः) उत्कृष्टतया प्राप्नुवन्तः (प्र) (भानवः) किरणाः (सिस्रते) प्रापयन्ति। अत्र सृधातोर्लटि शपः श्लुर्व्यत्ययेनात्मनेपदमन्तर्गतो ण्यर्थश्च (नाकम्) अविद्यमानदुःखमाकाशम् (अच्छ) सम्यक् ॥२४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा समिधायमग्निरबोध्यायतीमुषासं प्रति जनानां धेनुमिवास्ति। यस्य यह्वा इव प्रवयामुज्जिहानाः प्रभानवो नाकमच्छ सिस्रते, तं सुखाय यूयं संप्रयुङ्ग्ध्वम् ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा दुग्धदात्री धेनुर्गौः संसेविता सती दुग्धादिभिः प्राणिनः सुखयति, यथाऽऽप्ता विद्वांसो विद्यादानेनाविद्यां निवार्य्य मनुष्यानुन्नयन्ति, तथैवायमग्निर्वर्त्तत इति वेद्यम् ॥२४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत जशा दूध देणाऱ्या गाई, दूध वगैरे पदार्थांनी प्राण्यांना सुखी करतात व जसे आप्त विद्वान अविद्येचे निवारण करून विद्येने माणसांची उन्नती करतात तसाच हा अग्नी उन्नती करणारा आहे हे जाणा.