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अधि॑पत्न्यसि बृह॒ती दिग्विश्वे॑ ते दे॒वाऽअधि॑पतयो॒ बृह॒स्पति॑र्हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ त्वा॒ स्तोमौ॑ पृथि॒व्या श्र॑यतां वैश्वदेवाग्निमारु॒तेऽउ॒क्थेऽअव्य॑थायै स्तभ्नीता शाक्वररैव॒ते साम॑नी॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानञ्च सादयन्तु ॥१४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अधि॑प॒त्नीत्यधि॑ऽपत्नी। अ॒सि॒। बृ॒ह॒ती। दिक्। विश्वे॑। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। बृह॒स्पतिः॑। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशौ। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाविति॑ त्रिनवऽत्रयस्त्रि॒ꣳशौ। त्वा॒। स्तोमौ॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒ता॒म्। वै॒श्व॒दे॒वा॒ग्नि॒मा॒रु॒त इति॑ वैश्वदेवाग्निमारु॒ते। उ॒क्थे इत्यु॒क्थे। अव्य॑थायै। स्त॒भ्नी॒ता॒म्। शा॒क्व॒र॒रै॒व॒त इति॑ शाक्वररैव॒ते। साम॑नी॒ इति॒ऽसाम॑नी। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रति॑स्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋष॑यः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽविदा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥१४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! जो तू (बृहती) बड़ी (अधिपत्नी) सब दिशाओं के ऊपर वर्त्तमान (दिक्) दिशा के समान (असि) है, उस (ते) तेरा पति (विश्वे) सब (देवाः) प्रकाशक सूर्य्यादि पदार्थ (अधिपतयः) अधिष्ठाता हैं, वैसे जो (बृहस्पतिः) विश्व का रक्षक (हेतीनाम्) बड़े लोकों का (प्रतिधर्त्ता) प्रतीति के साथ धारण करनेवाले सूर्य्य के तुल्य वह तेरा पति (त्वा) तुझ को (च) और (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) त्रिणव और तेंतीस (स्तोमौ) स्तुति के साधन (पृथिव्याम्) पृथिवी में (अव्यथायै) पीड़ा रहितता के लिये (वैश्वदेवाग्निमारुते) सब विद्वान् और अग्नि वायुओं के व्याख्यान करनेवाले (उक्थे) कहने योग्य वेद के दो भागों का (श्रयताम्) आश्रय करें, (च) और जैसे (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा होने के लिये (शाक्वररैवते) शक्वरी और रेवती छन्द से कहे अर्थों से (सामनी) सामवेद के दो भागों को (स्तभ्नीताम्) सङ्गत करो। जैसे वे (अन्तरिक्षे) अवकाश में (प्रथमजाः) आदि में हुए (ऋषयः) धनञ्जय आदि सूक्ष्म स्थूल वायुरूप प्राण (देवेषु) दिव्य गुणवाले पदार्थों में (दिवः) प्रकाश की (मात्रया) मात्रा और (वरिम्णा) अधिकता से (त्वा) तुझ को प्रसिद्ध करते हैं, उन को मनुष्य लोग (प्रथन्तु) प्रख्यात करें, जैसे (अयम्) यह (अधिपतिः) स्वामी (विधर्त्ता) विविध प्रकार से सब को धारण करने हारा सूर्य है, जैसे (संविदानाः) सम्यक् सत्यप्रतिज्ञायुक्त ज्ञानवान् विद्वान् लोग (त्वा) तुझ को (नाकस्य) (पृष्ठे) सुखदायक देश के उपरि (स्वर्गे) सुखरूप (लोके) स्थान में स्थापित करते हैं, (ते) वे (सर्वे) सब (यजमानम्) तेरे पुरुष (च) और तुझ को (सादयन्तु) स्थित करें, वैसे तुम स्त्री-पुरुष दोनों वर्त्ता करो ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सब के बीच की दिशा सब से अधिक है, वैसे सब गुणों से शरीर और आत्मा का बल अधिक है, ऐसा निश्चित जानना चाहिये ॥१४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अधिपत्नी) सर्वासां दिशामुपरि वर्त्तमाना (असि) (बृहती) महती (दिक्) (विश्वे) अखिलाः (ते) तव (देवाः) द्योतकाः (अधिपतयः) अधिष्ठातारः (बृहस्पतिः) पालकः सूर्यः (हेतीनाम्) वृद्धानाम् (प्रतिधर्त्ता) प्रतीत्या धर्त्ता (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) (त्वा) (स्तोमौ) स्तुतिसाधकौ (पृथिव्याम्) (श्रयताम्) (वैश्वदेवाग्निमारुते) वैश्वदेवाग्निमरुद्व्याख्यायिके (उक्थे) वक्तव्ये (अव्यथायै) अविद्यमानसार्वजनिकपीडायै (स्तभ्नीताम्) (शाक्वररैवते) शक्त्यैश्वर्य्यप्रतिपादिके (सामनी) (प्रतिष्ठित्यै) (अन्तरिक्षे) (ऋषयः) धनञ्जयादयः सूक्ष्मस्थूला वायवः प्राणाः (त्वा) (प्रथमजाः) आदिजाः (देवेषु) दिव्यगुणेषु पदार्थेषु वा (दिवः) (मात्रया) (वरिम्णा) (प्रथन्तु) (विधर्त्ता) (च) (अयम्) (अधिपतिः) (च) (ते) (त्वा) (सर्वे) (संविदानाः) कृतप्रतिज्ञाः (नाकस्य) (पृष्ठे) (स्वर्गे) (लोके) (यजमानम्) (च) (सादयन्तु) ॥१४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! या त्वं बृहत्यधिपत्नी दिगिवासि, तस्यास्ते पतिर्विश्वे देवा अधिपतयः सन्ति, तद्वद्यो बृहस्पतिर्हेतीनां प्रतिधर्त्ता त्वा च त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ पृथिव्यामव्यथायै वैश्वदेवाग्निमारुते उक्थे च श्रयताम्। प्रतिष्ठित्यै शाक्वररैवते सामनी च स्तभ्नीताम्। यथा तेऽन्तरिक्षे प्रथमजा ऋषयो देवेषु दिवो मात्रया वरिम्णा त्वा प्रथन्ते तान् मनुष्याः प्रथन्तु। यथाऽयमधिपतिर्विधर्त्ता सूर्य्योऽस्ति, यथा संविदाना विद्वांसस्त्वा नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके सादयन्ति, यथा सर्वे ते यजमानं च सादयन्तु तथा त्वं पत्या सह वर्तेथाः ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सर्वासां मध्यस्था दिक् सर्वाभ्योऽधिकास्ति तथा सर्वेभ्यो गुणेभ्यः शरीरात्मबलमधिकमस्तीति वेद्यम् ॥१४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी मधली दिशा सर्वात मोठी (विस्तृत) असते तसे सर्व गुणांनी युक्त शरीर व आत्मा यांचे बल अधिक असते हे जाणावे.