प्रा॒णम्मे॑ पाह्यपा॒नम्मे॑ पाहि व्या॒नम्मे॑ पाहि॒ चक्षु॑र्मऽउ॒र्व्या विभा॑हि॒ श्रोत्र॑म्मे श्लोकय। अ॒पः पि॒न्वौष॑धीर्जिन्व द्वि॒पाद॑व॒ चतु॑ष्पात् पाहि दि॒वो वृष्टि॒मेर॑य ॥८ ॥
प्रा॒णम्। मे॒। पा॒हि॒। अ॒पा॒नमित्य॑पऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। व्या॒नमिति॑ विऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। चक्षुः॑। मे॒। उ॒र्व्या। वि। भा॒हि॒। श्रोत्र॑म्। मे॒। श्लो॒क॒य॒। अ॒पः। पि॒न्व॒। ओष॑धीः। जि॒न्व॒। द्वि॒पादिति॑ द्वि॒ऽपात्। अ॒व॒। चतु॑ष्पात्। चतुः॑पा॒दिति॒ चतुः॑ऽपात्। पा॒हि॒। दि॒वः। वृष्टि॑म्। आ। ई॒र॒य॒ ॥८ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
(प्राणम्) नाभेरूर्ध्वगामिनम् (मे) मम (पाहि) रक्ष (अपानम्) यो नाभेरर्वाग्गच्छति तम् (मे) मम (पाहि) (व्यानम्) यो विविधेषु शरीरसंधिष्वनिति तम् (मे) (पाहि) (चक्षुः) नेत्रम् (मे) (उर्व्या) बहुरूपयोत्तमफलप्रदया पृथिव्या सह। उर्वीति पृथिवीना० ॥ (निघं०१.१) (वि) (भाहि) (श्रोत्रम्) (मे) (श्लोकय) शास्त्रश्रवणाय सम्बन्धय (अपः) प्राणान् (पिन्व) पुष्णीहि सिञ्च (ओषधीः) सोमयवादीन् (जिन्व) प्राप्नुहि। जिन्वतीति गतिकर्म्मा० ॥ (निघं०२.१४) (द्विपात्) मनुष्यादीन् (अव) रक्ष (चतुष्पात्) गवादीन् (पाहि) (दिवः) सूर्य्यप्रकाशात् (वृष्टिम्) (आ) (ईरय) प्रेरय। [अयं मन्त्रः शत०८.२.३.३ व्याख्यातः] ॥८ ॥