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प्रा॒णम्मे॑ पाह्यपा॒नम्मे॑ पाहि व्या॒नम्मे॑ पाहि॒ चक्षु॑र्मऽउ॒र्व्या विभा॑हि॒ श्रोत्र॑म्मे श्लोकय। अ॒पः पि॒न्वौष॑धीर्जिन्व द्वि॒पाद॑व॒ चतु॑ष्पात् पाहि दि॒वो वृष्टि॒मेर॑य ॥८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रा॒णम्। मे॒। पा॒हि॒। अ॒पा॒नमित्य॑पऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। व्या॒नमिति॑ विऽआ॒नम्। मे॒। पा॒हि॒। चक्षुः॑। मे॒। उ॒र्व्या। वि। भा॒हि॒। श्रोत्र॑म्। मे॒। श्लो॒क॒य॒। अ॒पः। पि॒न्व॒। ओष॑धीः। जि॒न्व॒। द्वि॒पादिति॑ द्वि॒ऽपात्। अ॒व॒। चतु॑ष्पात्। चतुः॑पा॒दिति॒ चतुः॑ऽपात्। पा॒हि॒। दि॒वः। वृष्टि॑म्। आ। ई॒र॒य॒ ॥८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:8


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पते वा स्त्रि ! तू (उर्व्या) बहुत प्रकार की उत्तम क्रिया से (मे) मेरे (प्राणम्) नाभि से ऊपर को चलनेवाले प्राणवायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (अपानम्) नाभि के नीचे गुह्येन्द्रिय मार्ग से निकलनेवाले अपान वायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (व्यानम्) विविध प्रकार की शरीर की संधियों में रहनेवाले व्यान वायु की (पाहि) रक्षा कर (मे) मेरे (चक्षुः) नेत्रों को (विभाहि) प्रकाशित कर (मे) मेरे (श्रोत्रम्) कानों को (श्लोकय) शास्त्रों के श्रवण से संयुक्त कर (अपः) प्राणों को (पिन्व) पुष्ट कर (ओषधीः) सोमलता वा यव आदि ओषधियों को (जिन्व) प्राप्त हो (द्विपात्) मनुष्यादि दो पगवाले प्राणियों की (अव) रक्षा कर (चतुष्पात्) चार पगवाले गौ आदि की (पाहि) रक्षा कर और जैसे सूर्य्य (दिवः) अपने प्रकाश से (वृष्टिम्) वर्षा करता है, वैसे घर के कार्यों को (एरय) अच्छे प्रकार प्राप्त कर ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि स्वयंवर विवाह करके अति प्रेम के साथ आपस में प्राण के समान प्रियाचरण, शास्त्रों का सुनना, ओषधि आदि का सेवन और यज्ञ के अनुष्ठान से वर्षा करावें ॥८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(प्राणम्) नाभेरूर्ध्वगामिनम् (मे) मम (पाहि) रक्ष (अपानम्) यो नाभेरर्वाग्गच्छति तम् (मे) मम (पाहि) (व्यानम्) यो विविधेषु शरीरसंधिष्वनिति तम् (मे) (पाहि) (चक्षुः) नेत्रम् (मे) (उर्व्या) बहुरूपयोत्तमफलप्रदया पृथिव्या सह। उर्वीति पृथिवीना० ॥ (निघं०१.१) (वि) (भाहि) (श्रोत्रम्) (मे) (श्लोकय) शास्त्रश्रवणाय सम्बन्धय (अपः) प्राणान् (पिन्व) पुष्णीहि सिञ्च (ओषधीः) सोमयवादीन् (जिन्व) प्राप्नुहि। जिन्वतीति गतिकर्म्मा० ॥ (निघं०२.१४) (द्विपात्) मनुष्यादीन् (अव) रक्ष (चतुष्पात्) गवादीन् (पाहि) (दिवः) सूर्य्यप्रकाशात् (वृष्टिम्) (आ) (ईरय) प्रेरय। [अयं मन्त्रः शत०८.२.३.३ व्याख्यातः] ॥८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पते स्त्रि पुरुष वा ! त्वमुर्व्या सह मे प्राणं पाहि, मेऽपानं पाहि, मे व्यानं पाहि, मे चक्षुर्विभाहि, मे श्रोत्रं श्लोकयापः पिन्वौषधीर्जिन्व द्विपादव चतुष्पात् पाहि। यथा सूर्यो दिवो वृष्टिं करोति तथा गृहकृत्यमेरय ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। स्त्रीपुरुषौ स्वयंवरं विवाहं विधायातिप्रेम्णा परस्परं प्राणप्रियाचरणं शास्त्रश्रवणमोषध्यादिसेवनं कृत्वा यज्ञाद् वृष्टिं च कारयेताम् ॥८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. स्त्री-पुरुषांनी स्वयंवर विवाह करून आपापसात प्राणाप्रमाणे प्रिय आचरण, शास्त्रांचे श्रवण, औषधांचे सेवन व यज्ञाच्या अनुष्ठानाने वृष्टी करण्यास साह्यभूत ठरावे.