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अदि॑त्यास्त्वा पृ॒ष्ठे सा॑दयाम्य॒न्तरि॑क्षस्य ध॒र्त्रीं वि॒ष्टम्भ॑नीं दि॒शामधि॑पत्नीं॒ भुव॑नानाम्। ऊ॒र्मिर्द्र॒प्सोऽअ॒पाम॑सि वि॒श्वक॑र्मा त॒ऽऋषि॑रश्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑ ॥५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अदि॑त्याः। त्वा॒। पृ॒ष्ठे। सा॒द॒या॒मि। अ॒न्तरि॑क्षस्य। ध॒र्त्रीम्। वि॒ष्टम्भ॑नीम्। दि॒शाम्। अधि॑पत्नी॒मित्यधि॑ऽपत्नीम्। भुव॑नानाम्। ऊ॒र्मिः। द्र॒प्सः। अ॒पाम्। अ॒सि॒। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। ते॒। ऋषिः॑। अ॒श्विना॑। अ॒ध्व॒र्यूऽइत्य॑ध्व॒र्यू। सा॒द॒य॒ता॒म्। इ॒ह। त्वा॒ ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी पूर्वोक्त विषय ही अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! जो (ते) तेरा (विश्वकर्मा) सब शुभ कर्मों से युक्त (ऋषिः) विज्ञानदाता पति मैं (अन्तरिक्षस्य) अन्तःकरण के नाशरहित विज्ञान को (धर्त्रीम्) धारण करने (दिशाम्) पूर्वादि दिशाओं की (विष्टम्भनीम्) आधार और (भुवनानाम्) सन्तानोत्पत्ति के निमित्त घरों की (अधिपत्नीम्) अधिष्ठाता होने से पालन करनेवाली (त्वा) तुझ को सूर्य्य की किरण के समान (अदित्याः) पृथिवी के (पृष्ठे) पीठ पर (सादयामि) घर की अधिकारिणी स्थापित करता हूँ, जो तू (अपाम्) जलों की (ऊर्मिः) तरंग के सदृश (द्रप्सः) आनन्दयुक्त (असि) है, उस (त्वा) तुझ को (इह) इह गृहाश्रम में (अध्वर्यू) रक्षा के निमित्त यज्ञ को करनेवाले (अश्विना) विद्या में व्याप्तबुद्धि अध्यापक और उपदेशक पुरुष (सादयताम्) स्थापित करें ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्त्रियाँ अविनाशी सुख देनेहारी सब दिशाओं में प्रसिद्ध कीर्तिवाली विद्वान् पतियों से युक्त सदा आनन्दित हैं, वे ही गृहाश्रम का धर्म पालने और उस की उन्नति के लिये समर्थ होती हैं, तेरहवें अध्याय में जो (मधुश्च०मन्त्र २५) कहा है, वहाँ से यहाँ तक वसन्त ऋतु के गुणों की प्रधानता से व्याख्यान किया है, ऐसा जानना चाहिये ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अदित्याः) भूमेः (त्वा) त्वाम् (पृष्ठे) उपरि (सादयामि) स्थापयामि (अन्तरिक्षस्य) अन्तरक्षयविज्ञानस्य (धर्त्रीम्) (विष्टम्भनीम्) (दिशाम्) पूर्वादीनाम् (अधिपत्नीम्) अधिष्ठातृत्वेन पालिकाम् (भुवनानाम्) भवन्ति भूतानि येषु तेषां गृहाणाम् (ऊर्मिः) तरङ्ग इव (द्रप्सः) हर्षः (अपाम्) जलानाम् (असि) (विश्वकर्मा) शुभाखिलकर्मा (ते) तव (ऋषिः) विज्ञापकः पतिः (अश्विना) (अध्वर्यू) (सादयताम्) (इह) (त्वा) त्वाम्। [अयं मन्त्रः शत०८.१.१.१० व्याख्यातः] ॥५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! यस्ते विश्वकर्मर्षिः पतिरहमन्तरिक्षस्य धर्त्रीं दिशां विष्टम्भनीं भुवनानामधिपत्नीं सूर्य्यामिव त्वादित्याः पृष्ठे सादयामि। योपामूर्मिरिव ते द्रप्स आनन्दस्तेन युक्तासि तां त्वेहाध्वर्यू अश्विना सादयताम् ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। याः स्त्रियोऽक्षयसुखकारिण्यः प्रसिद्धदिक्कीर्त्तयो विद्वत्पतयः सदानन्दिताः सन्ति, ता एव गृहाश्रमधर्मपालनोन्नतये प्रभवन्ति। मधुश्चेति [यजु०१३.२५] मन्त्रमारभ्यैतन्मन्त्रपर्य्यन्तं वसन्तर्त्तुगुणव्याख्यानं प्राधान्येन कृतमिति ज्ञेयम् ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. दिगदिगंतरी ज्यांची कीर्ती पसरलेली असते अशा विद्वान पतींना स्वीकारून ज्या स्त्रिया अखंड सुख देतात त्या गृहस्थाश्रमाचे पालन व उन्नती करण्यास समर्थ असतात. तेराव्या अध्यायापासून या मंत्रापर्यंत वसंत ऋतूची व्याख्या प्रामुख्याने केलेली आहे, हे जाणले पाहिजे.