वांछित मन्त्र चुनें

स्वैर्दक्षै॒र्दक्ष॑पिते॒ह सी॑द दे॒वाना॑सु॒म्ने बृ॑ह॒ते रणा॑य। पि॒तेवै॑धि सू॒नव॒ऽआ सु॒शेवा॑ स्वावे॒शा त॒न्वा᳕ संवि॑शस्वा॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑ ॥३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वैः। दक्षैः॑। दक्ष॑पि॒तेति॒ दक्ष॑ऽपिता। इ॒ह। सी॒द॒। दे॒वाना॑म्। सु॒म्ने। बृ॒ह॒ते। रणा॑य। पि॒तेवेति॑ पि॒ताऽइ॑व। ए॒धि॒। सू॒नवे॑। आ। सु॒शेवेति॑ सु॒ऽशेवा॑। स्वा॒वे॒शेति॑ सुऽआवे॒शा। तन्वा᳕। सम्। वि॒श॒स्व॒। अ॒श्विना॑। अ॒ध्व॒र्यूऽइत्य॑ध्व॒र्यू। सा॒द॒य॒ता॒म्। इ॒ह। त्वा॒ ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी पूर्वोक्त विषय को ही अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! तू जैसे (स्वैः) अपने (दक्षैः) बलों और चतुर भृत्यों के साथ वर्तता हुआ (देवानाम्) धर्म्मात्मा विद्वानों के मध्य में वर्त्तमान (बृहते) बड़े (रणाय) संग्राम के लिये (सुम्ने) सुख के विषय (दक्षपिता) बलों वा चतुर भृत्यों का पालन करने हारा होके विजय से बढ़ता है, वैसे (इह) इस लोक के मध्य में (एधि) बढ़ती रह। (सुम्ने) सुख में (आसीद) स्थिर हो और (पितेव) जैसे पिता (सूनवे) अपने पुत्र के लिये सुन्दर सुख देता है, वैसे (सुशेवा) सुन्दर सुख से युक्त (स्वावेशा) अच्छी प्रीति से सुन्दर, शुद्ध शरीर, वस्त्र, अलंकार को धारण करती हुई अपने पति के साथ प्रवेश करने हारी होके (तन्वा) शरीर के साथ (संविशस्व) प्रवेश कर और (अध्वर्यू) गृहाश्रमादि यज्ञ की अपने लिये इच्छा करनेवाले (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करने हारे जन (त्वा) तुझ को (इह) इस गृहाश्रम में (सादयताम्) स्थित करें ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। स्त्रियों को चाहिये कि युद्ध में भी अपने पतियों के साथ स्थित रहें। अपने नौकर, पुत्र और पशु आदि की पिता के समान रक्षा करें और नित्य ही वस्त्र और आभूषणों से अपने शरीरों को संयुक्त करके वर्त्तें। विद्वान् लोग भी इन को सदा उपदेश करें और स्त्री भी इन विद्वानों के लिये सदा उपदेश करें ॥३ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(स्वैः) स्वकीयैः (दक्षैः) बलैश्चतुरैर्भृत्यैर्वा (दक्षपिता) दक्षस्य बलस्य चतुराणां भृत्यानां वा पिता पालकः (इह) अस्मिन् लोके (सीद) (देवानाम्) धार्मिकाणां विदुषां मध्ये (सुम्ने) सुखे (बृहते) महते (रणाय) संग्रामाय (पितेव) (एधि) भव (सूनवे) अपत्याय (आ) (सुशेवा) सुष्ठु सुखा (स्वावेशा) सुष्ठु समन्ताद् वेशो यस्याः सा (तन्वा) शरीरेण (सम्) एकीभावे (विशस्व) (अश्विना) (अध्वर्यू) (सादयताम्) (इह) (त्वा) त्वाम्। [अयं मन्त्रः शत०८.१.२.६ व्याख्यातः] ॥३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! त्वं यथा स्वैर्दक्षैः सह वर्तमानो देवानां बृहते रणाय सुम्ने दक्षपिता विजयेन वर्धते तथेहैधि। सुम्न आसीद, पितेव सूनवे सुशेवा स्वावेशा सती तन्वा संविशस्व। अध्वर्यू अश्विना त्वेह सादयताम् ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। स्त्रियो युद्धेऽपि पतिभिः सह तिष्ठेयुः, स्वकीयभृत्यपुत्रपश्वादीन् पितर इव पालयेयुः। सदैवात्युत्तमैर्वस्त्रभूषणैः शरीराणि संसृज्य वर्तेरन्। विद्वांसश्चैवमेताः सदोपदिशेयुः स्त्रियोऽप्येतांश्च ॥३ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. स्त्रियांनी युद्धातही आपल्या पतीबरोबर राहावे. आपले नोकर, पुत्र, पशू इत्यादींचे पित्याप्रमाणे रक्षण करावे व सदैव वस्त्र आणि आभूषणांनी आपले शरीर अलंकृत करावे. विद्वान लोकांनीही त्यांना नेहमी उपदेश करून गृहस्थाश्रमात स्थित करावे.