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कु॒ला॒यिनी॑ घृ॒तव॑ती॒ पुर॑न्धिः स्यो॒ने सी॑द॒ सद॑ने पृथि॒व्याः। अ॒भि त्वा॑ रु॒द्रा वस॑वो गृणन्त्वि॒मा ब्रह्म॑ पीपिहि॒ सौभ॑गाया॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑ ॥२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कु॒ला॒यिनी॑। घृ॒तव॒तीति॑ घृ॒तऽव॑ती। पुर॑न्धि॒रिति॒ पुर॑म्ऽधिः। स्यो॒ने। सी॒द॒। सद॑ने। पृ॒थि॒व्याः। अ॒भि। त्वा॒। रु॒द्राः। वस॑वः। गृ॒ण॒न्तु॒। इ॒मा। ब्रह्म॑। पी॒पि॒हि॒। सौभ॑गाय। अ॒श्विना॑। अ॒ध्व॒र्यूऽइत्य॑ध्व॒र्यू। सा॒द॒य॒ता॒म्। इ॒ह। त्वा॒ ॥२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:2


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पूर्वोक्त विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्योने) सुख करने हारी ! जिस (त्वा) तुझ को (वसवः) प्रथम कोटि के विद्वान् और (रुद्राः) मध्य कक्षा के विद्वान् (इमा) इन (ब्रह्म) विद्याधनों के देनेवाले गृहस्थों की (अभि) अभिमुख होकर (गृणन्तु) प्रशंसा करें, सो तू (सौभगाय) सुन्दर संपत्ति होने के लिये इन विद्याधन को (पीपिहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हो, (घृतवती) बहुत जल और (पुरन्धिः) बहुत सुख धारण करनेवाली (कुलायिनी) प्रशंसित कुल की प्राप्ति से युक्त हुई (पृथिव्याः) अपनी भूमि के (सदने) घर में (सीद) स्थित हो, (अध्वर्यू) अपने लिये रक्षणीय गृहाश्रम आदि यज्ञ चाहनेवाले (अश्विना) सब विद्याओं में व्यापक और उपदेशक पुरुष (त्वा) तुझको (इह) इस गृहाश्रम में (सादयताम्) स्थापित करें ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्रियों को योग्य है कि साङ्गोपाङ्ग पूर्ण विद्या और धन ऐश्वर्य का सुख भोगने के लिये अपने सदृश पतियों से विवाह करके विद्या और सुवर्ण आदि धन को पाके सब ऋतुओं में सुख देने हारे घरों में निवास करें तथा विद्वानों का सङ्ग और शास्त्रों का अभ्यास निरन्तर किया करें ॥२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स एव विषय उपदिश्यते ॥

अन्वय:

(कुलायिनी) कुलं यदेति तत्कुलायं तत्प्रशस्तं विद्यते यस्याः सा (घृतवती) घृतं बहूदकमस्ति यस्याः सा (पुरन्धिः) या पुरूणि बहूनि सुखानि दधाति सा (स्योने) सुखकारिके (सीद) (सदने) गृहे (पृथिव्याः) भूमेः (अभि) (त्वा) त्वाम् (रुद्राः) मध्या विद्वांसः (वसवः) आदिमा विपश्चितः (गृणन्तु) प्रशंसन्तु (इमा) इमानि (ब्रह्म) विद्याधनम् (पीपिहि) प्राप्नुहि। अत्र पि गतावित्यस्माच्छपः श्लुः, तुजादित्वादभ्यासदीर्घश्च (सौभगाय) शोभनैश्वर्य्याणां भावाय (अश्विना) (अध्वर्यू) (सादयताम्) (इह) (त्वा) त्वाम् ॥२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्योने ! यां त्वा त्वां वसवो रुद्राश्चेमा ब्रह्मदातॄन् ग्रहीतॄनभिगृणन्तु सा त्वं सौभगायैतानि पीपिहि। घृतवती पुरन्धिः कुलायिनी सती पृथिव्याः सदने सीद। अध्वर्यू अश्विना त्वेह सादयताम् ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्रियः साङ्गोपाङ्गागमैश्वर्यसुखभोगाय स्वसदृशान् पतीनुपयम्य विद्यासुवर्णादिधनं प्राप्य सर्वर्त्तुसुखसाधकेषु गृहेषु निवसन्तु। विदुषां सङ्गं शास्त्राभ्यासं च सततं कुर्युः ॥२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - स्त्रियांनी संपूर्ण विद्या व ऐश्वर्यसुख भोगण्यासाठी आपल्या सारख्या गुणांच्या पतींशी विवाह करून विद्या व सुवर्ण इत्यादी धन प्राप्त करून सर्व ऋतुंमध्ये सुख देणाऱ्या घरात निवास करावा व विद्वानांची संगती करून निरंतर शास्त्राचा अभ्यास करावा.