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इ॒षश्चो॒र्जश्च॑ शार॒दावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषो᳖ऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽ अ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। शा॒र॒दावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम् ॥१६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒षः। च॒। ऊ॒र्जः। च। शा॒र॒दौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्याय॑। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। इ॒मेऽइती॒मे। शा॒र॒दौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒ऽसंवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वेऽइति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शरद् ऋतु का व्याख्यान अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (इषः) चाहने योग्य क्वार महीना (च) और (ऊर्जः) सब पदार्थों के बलवान् होने का हेतु कार्त्तिक (च) ये दोनों (शारदौ) शरद् (ऋतू) ऋतु के महीने (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसित सुख होने के लिये होते हैं। जिन के (अन्तःश्लेषः) मध्य में किञ्चित् शीतस्पर्श (असि) होता है, वे (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी को (कल्पेताम्) समर्थ करें, (आपः) जल और (ओषधयः) औषधियाँ (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें, (सव्रताः) सब कार्यों के नियम करने हारे (अग्नयः) शरीर के अग्नि (पृथक्) अलग (कल्पन्ताम्) समर्थ हों (ये) जो (अन्तरा) बीच में (समनसः) मन के सम्बन्धी (अग्नयः) बाहर के भी अग्नि (इमे) इन (द्यावापृथिवी) आकाश भूमि को (कल्पेताम्) समर्थ करें, (शारदौ) शरद् (ऋतू) ऋतु के दोनों महीनों में (इन्द्रमिव) परमैश्वर्य के तुल्य (अभिकल्पमानाः) सब ओर से आनन्द की इच्छा करते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (अभिसंविशन्तु) प्रवेश करें (तया) उस (देवतया) दिव्य शरद् ऋतु रूप देवता के नियम के साथ (ध्रुवे) निश्चल सुखवाले (सीदतम्) प्राप्त होते हैं, वैसे तुम लोगों को (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसित सुख होने के लिये भी होने योग्य हैं ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो शरद् ऋतु में उपयोगी पदार्थ हैं, उन को यथायोग्य शुद्ध करके सेवन करो ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शरदृतुर्व्याख्यायते ॥

अन्वय:

(इषः) इष्यतेऽसावाश्विनो मासः (च) (ऊर्जः) ऊर्जन्ति सर्वे पदार्थो यस्मिन् स कार्त्तिकः (च) (शारदौ) शरदि भवौ (ऋतू) बलप्रदौ (अग्नेः) (अन्तःश्लेषः) मध्यस्पर्शः (असि) अस्ति (कल्पेताम्) (द्यावापृथिवी) (कल्पन्ताम्) (आपः) (ओषधयः) (कल्पन्ताम्) (अग्नयः) बहिःस्थाः (पृथक्) (मम) (ज्यैष्ठ्याय) प्रशस्तसुखभावाय (सव्रताः) सनियमाः (ये) (अग्नयः) शरीरस्थाः (समनसः) मनसा सह वर्त्तमानाः (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) (इमे) (शारदौ) (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) (इन्द्रमिव) (देवाः) (अभिसंविशन्तु) (तया) (देवतया) सह (अङ्गिरस्वत्) आकाशवत् (ध्रुवे) निश्चलसुखे (सीदतम्) सीदतः। अत्र पुरुषव्यत्ययः। [अयं मन्त्रः शत०८.३.२.६ व्याख्यातः] ॥१६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः। याविषश्चोर्जश्च शारदावृतू यथा मम ज्यैष्ठ्याय भवतो ययोरग्नेरन्तःश्लेषोऽ(स्य)स्ति। तौ द्यावापृथिवी कल्पेतामाप ओषधयश्च कल्पन्ताम्। सव्रता अग्नयः पृथक् कल्पन्ताम्। येऽन्तरा समनसोऽग्नय इमे द्यावापृथिवी कल्पेताम्। शारदावृतू इन्द्रमिवाभि कल्पमाना देवा अभिसंविशन्तु, तथा तया देवतया सह ध्रुवे सीदतं गच्छतः ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! ये शरद्युपयुक्ताः पदार्थाः सन्ति तान् यथायोग्यं संस्कृत्य सेवध्वम् ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे पदार्थ शरद ऋतूमध्ये उपयोगी आहेत त्यांना यथायोग्य रीतीने शुद्ध करून त्यांचे सेवन करा.