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इ॒दमु॑त्त॒रात् स्व॒स्तस्य॒ श्रोत्र॑ꣳ सौ॒वꣳ श॒रछ्रौ॒त्र्यनु॒ष्टुप् शा॑र॒द्य᳖नु॒ष्टुभ॑ऽ ऐ॒डमै॒डान् म॒न्थी म॒न्थिन॑ऽ एकवि॒ꣳशऽ ए॑कवि॒ꣳशाद् वै॑रा॒जं वि॒श्वामि॑त्र॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ श्रोत्रं॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒दम्। उ॒त्त॒रात्। स्व॒रिति॒ स्वः᳖। तस्य॑। श्रोत्र॑म्। सौ॒वम्। श॒रत्। श्रौ॒त्री। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। शा॒र॒दी। अ॒नु॒ष्टुभः॑। अ॒नु॒स्तुभ॒ इत्य॑नु॒ऽस्तुभः॑। ऐ॒डम्। ऐ॒डात्। म॒न्थी। म॒न्थिनः॑। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। ए॒क॒वि॒ꣳशादित्ये॑ऽकवि॒ꣳशात्। वै॒रा॒जम्। वि॒श्वामि॑त्रः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। श्रोत्र॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑ ॥५७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:57


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शरद् ऋतु में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सौभाग्यवती ! जैसे (इदम्) यह (उत्तरात्) सब से उत्तर भाग में (स्वः) सुखों का साधन दिशारूप है, (तस्य) उसके (सौवम्) सुख का साधन (श्रोत्रम्) कान (श्रौत्री) कान की सम्बन्धी (शरत्) शरदृतु (शारदी) शरद् ऋतु के व्याख्यानवाला (अनुष्टुप्) प्रबद्ध अर्थवाला अनुष्टुप् छन्द (अनुष्टुभः) उससे (ऐडम्) वाणी के व्याख्यान से युक्त मन्त्र (ऐडात्) उस मन्त्र से (मन्थी) पदार्थों के मथने का साधन (मन्थिनः) उस साधन से (एकविंशः) इक्कीस विद्याओं का पूर्ण करने हारा सिद्धान्त (एकविंशाद्) उस सिद्धान्त से (वैराजम्) विविध पदार्थों के प्रकाशक सामवेद के ज्ञान को प्राप्त हुआ (विश्वामित्रः) सब से मित्रता का हेतु (ऋषिः) शब्द ज्ञान कराने हारा कान और (प्रजाभ्यः) उत्पन्न हुई बिजुली आदि के लिये (श्रोत्रम्) सुनने के साधन को ग्रहण करते हैं, वैसे (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापालक पति ने ग्रहण की (त्वया) तेरे साथ में प्रसिद्ध हुई बिजुली आदि से (श्रोत्रम्) सुनने के साधन कान को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्री पुरुषों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या पढ़ और विवाह करके बहुश्रुत होवें और सत्यवक्ता आप्त जनों से सुने बिना पढ़ी हुई भी विद्या फलदायक नहीं होती, इसलिये सदैव सज्जनों का उपदेश सुन के सत्य का धारण और मिथ्या को छोड़ देवें ॥५७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शरदृतौ कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(इदम्) (उत्तरात्) सर्वेभ्य उत्तरम् (स्वः) सुखसंपादकदिग् रूपम् (तस्य) (श्रोत्रम्) कर्णम् (सौवम्) स्वः सुखस्येदं साधनम् (शरत्) शृणाति येन सा (श्रौत्री) श्रोत्रस्येयं सम्बन्धिनी (अनुष्टुप्) (शारदी) शरदो व्याख्यात्री (अनुष्टुभः) (ऐडम्) इडाया वाचो व्याख्यातृ साम (ऐडात्) (मन्थी) पदार्थानां मन्थनसाधनः (मन्थिनः) (एकविंशः) एकविंशतेर्विद्यानां पूरकः (एकविंशात्) (वैराजम्) विविधानां पदार्थानामिदं प्रकाशकम् (विश्वामित्रः) विश्वं मित्रं येन भवति सः (ऋषिः) शब्दप्रापकः (प्रजापतिगृहीतया) (त्वया) (श्रोत्रम्) शृणोति येन तत् (गृह्णामि) (प्रजाभ्यः) प्रजाताभ्यो विद्युदादिभ्यः। [अयं मन्त्रः शत०८.१.२.४-६ व्याख्यातः] ॥५७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सुभगे ! यथेदमुत्तरात् स्वस्तस्य सौवं श्रौत्री शरच्छारद्यनुष्टुबनुष्टुभ ऐडमैडान्मन्थी मन्थिन एकविंश एकविंशाद्वैराजं साम प्राप्तो विश्वामित्र ऋषिश्च प्रजाभ्यः श्रोत्रं गृह्णामि तथा प्रजापतिगृहीतया त्वया सहाहं प्रजाभ्यः श्रोत्रं गृह्णामि ॥५७ ॥
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचर्य्येणाधीतविद्यौ कृतविवाहौ स्त्रीपुरुषौ बहुश्रुतौ भवेताम्। नह्याप्तानां सकाशाच्छ्रवणेन विना पठितापि विद्या फलवती जायते। तस्मात् सदा श्रुत्वा सत्यं धरेतामसत्यं त्यजेताम् ॥५७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषांनी ब्रह्मचारी राहून विद्या शिकावी व विवाह करून बहुश्रुत व्हावे. सत्यवक्ता असणाऱ्या आप्तजनाकडून ऐकल्याशिवाय अध्ययन केलेली विद्या फलदायी होत नाही. त्यासाठी सदैव सज्जनांचा उपदेश ऐकून सत्य धारण करावे व असत्याचा त्याग करावा.