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अ॒यं प॒श्चाद् वि॒श्वव्य॑चा॒स्तस्य॒ चक्षु॑र्वै॒श्वव्यच॒सं व॒र्षाश्चा॑क्षु॒ष्यो᳕ जग॑ती वा॒र्षी जग॑त्या॒ऽ ऋक्स॑म॒मृक्स॑माच्छु॒क्रः शु॒क्रात् स॑प्तद॒शः स॑प्तद॒शाद् वै॑रू॒पं ज॒मद॑ग्नि॒र्ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ चक्षु॑र्गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५६ ॥

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पद पाठ

अ॒यम्। प॒श्चात्। वि॒श्वव्य॑चा॒ इति॑ वि॒श्वऽव्य॑चाः। तस्य॑। चक्षुः॑। वै॒श्व॒व्य॒च॒समिति॑ वैश्वऽव्य॒च॒सम्। व॒र्षाः। चा॒क्षु॒ष्यः᳖। जग॑ती। वा॒र्षी। जग॑त्याः। ऋक्स॑म॒मित्यृक्ऽस॑मम्। ऋक्स॑मा॒दित्यृक्ऽस॑मात्। शु॒क्रः। शु॒क्रात्। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। स॒प्त॒द॒शादिति॑ सप्तऽद॒शात्। वै॒रू॒पम्। ज॒मद॑ग्नि॒रिति॑ ज॒मत्ऽअ॑ग्निः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। चक्षुः॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑ ॥५६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:56


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब स्त्री पुरुष आपस में कैसा आचरण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे उत्तम मुखवाली स्त्री ! जैसे (अयम्) यह सूर्य्य के समान विद्वान् (विश्वव्यचाः) सब संसार को चारों ओर के प्रकाश से व्यापक होकर प्रकट करता (पश्चात्) पश्चिम दिशा में वर्त्तमान (तस्य) उस सूर्य्य का (वैश्वव्यचसम्) प्रकाशक किरणरूप (चक्षुः) नेत्र (चाक्षुष्यः) नेत्र से देखने योग्य (वर्षाः) जिस समय मेघ वर्षते हैं, वह वर्षा ऋतु (वार्षी) वर्षा ऋतु के व्याख्यानवाला (जगती) संसार में प्रसिद्ध जगती छन्द (जगत्याः) जगती छन्द से (ऋक्समम्) ऋचाओं के सेवन का हेतु विज्ञान (ऋक्समात्) उस विज्ञान से (शुक्रः) पराक्रम (शुक्रात्) पराक्रम से (सप्तदशः) सत्रह तत्त्वों का पूरक विज्ञान (सप्तदशात्) उस विज्ञान से (वैरूपम्) अनेक रूपों का हेतु जगत् का ज्ञान और जैसे (जमदग्निः) प्रकाशस्वरूप (ऋषिः) रूप का प्राप्त कराने हारा नेत्र (प्रजापतिगृहीतया) सन्तानरक्षक पति ने ग्रहण की हुई विद्यायुक्त स्त्री के साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये तेरे साथ (चक्षुः) विद्यारूपी नेत्रों का ग्रहण करता है, वैसे मैं तेरे साथ संसार से बल को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥५६ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि सामवेद के पढ़ने से सूर्य आदि प्रसिद्ध जगत् को स्वभाव से जान के सब सृष्टि के गुणों के दृष्टान्त से अच्छा देखें और चरित्र ग्रहण करें ॥५६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ स्त्रीपुरुषौ मिथः कथमाचरेतामित्याह ॥

अन्वय:

(अयम्) आदित्यः (पश्चात्) पश्चिमायां दिशि वर्त्तमानः (विश्वव्यचाः) विश्वं व्यचति प्रकाशेनाभिव्याप्य प्रकटयति सः (तस्य) सूर्यस्य (चक्षुः) नयनम् (वैश्वव्यचसम्) प्रकाशकम् (वर्षाः) यासु मेघा वर्षन्ति ताः (चाक्षुष्यः) चक्षुष इमा दर्शनीयाः (जगती) जगद्गता (वार्षी) वर्षाणां व्याख्यात्री (जगत्याः) (ऋक्समम्) ऋचः सनन्ति संभजन्ति येन तद् ऋक्समम् (ऋक्समात्) (शुक्रः) पराक्रमः (शुक्रात्) वीर्य्यात् (सप्तदशः) सप्तदशानां पूरकः (सप्तदशात्) (वैरूपम्) विविधानि रूपाणि यस्मात् तस्येदम् (जमदग्निः) प्रज्वलिताग्निर्नयनम् (ऋषिः) रूपप्रापकः (प्रजापतिगृहीतया) (त्वया) (चक्षुः) (गृह्णामि) (प्रजाभ्यः) ॥५६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वरानने ! यथाऽयमादित्य इव विद्वान् विश्वव्यचाः सन् पश्चादादित्यस्तस्य वैश्वव्यचसं चक्षुश्चाक्षुष्यो वर्षा वार्षी जगती जगत्या ऋक्सममृक्समाच्छुक्रः शुक्रात् सप्तदशः सप्तदशाद् वैरूपं यथा च जमदग्निर्ऋषिः प्रजापतिगृहीतया सह प्रजाभ्यश्चक्षुर्गृह्णाति तथाऽहं त्वया साकं संसाराद् बलं गृह्णामि ॥५६ ॥
भावार्थभाषाः - दम्पतिभ्यां सामवेदाध्ययनेन सूर्यादिप्रसिद्धं जगदर्थतो विज्ञाय सर्वस्याः सृष्टेः सुदर्शनचरित्रे संग्राह्ये ॥५६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषांनी सामवेदाचे अध्ययन करून सूर्य इत्यादी पदार्थांचे गुणधर्म जाणून सर्व सृष्टीतील सर्व पदार्थांचे गुण दर्शविणारे दाखले चांगल्या प्रकारे पाहावेत व आपले चारित्र्य निर्माण करावे.