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अ॒यं पु॒रो भुव॒स्तस्य॑ प्रा॒णो भौ॑वा॒यनो व॑स॒न्तः प्रा॑णाय॒नो गा॑य॒त्री वा॑स॒न्ती गा॑य॒त्र्यै गा॑य॒त्रं गा॑य॒त्रादु॑पा॒शुरु॑पा॒शोस्त्रि॒वृत् त्रि॒वृतो॑ रथन्त॒रं वसि॑ष्ठ॒ऽ ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॑ प्राणं गृ॑ह्णामि प्र॒जाभ्यः॑ ॥५४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। पु॒रः। भुवः॑। तस्य॑। प्रा॒णः। भौ॒वा॒य॒न इति॑ भौवऽआ॒य॒नः। व॒स॒न्तः॒। प्रा॒णा॒य॒न इति॑ प्राणऽआ॒य॒नः। गा॒य॒त्री। वा॒स॒न्ती। गा॒य॒त्र्यै। गा॒य॒त्रम्। गा॒य॒त्रात्। उ॒पा॒शुरित्यु॑पऽअ॒ꣳशुः। उ॒पा॒शोरित्यु॑पऽअ॒ꣳशोः। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। त्रि॒वृत॒ इति॑ त्रि॒ऽवृतः॑। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। वसि॑ष्ठः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। प्रा॒णम्। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒जाभ्यः॑ ॥५४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:54


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यों को सृष्टि से कौन-कौन उपकार लेने चाहियें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! जैसे (अयम्) यह (पुरो भुवः) प्रथम होनेवाला अग्नि है, (तस्य) उसका (भौवायनः) सिद्ध कारण से रचा हुआ (प्राणः) जीवन का हेतु प्राण (प्राणायनः) प्राणों की रचना का हेतु (वसन्तः) सुगन्धि आदि में बसाने हारा वसन्त ऋतु (वासन्ती) वसन्त ऋतु का जिस में व्याख्यान हो, वह (गायत्री) गाते हुए का रक्षक गायत्रीमन्त्रार्थ ईश्वर (गायत्र्यै) गायत्री मन्त्र का (गायत्रम्) गायत्री छन्द (गायत्रात्) गायत्री से (उपांशुः) समीप से ग्रहण किया जाय (उपांशोः) उस जप से (त्रिवृत्) कर्म, उपासना और ज्ञान के सहित वर्त्तमान फल (त्रिवृतः) उस तीन प्रकार के फल से (रथन्तरम्) रमणीय पदार्थों से तारने हारा सुख और (वसिष्ठः) अतिशय करके निवास का हेतु (ऋषिः) सुख प्राप्त कराने हारा विद्वान् (प्रजापतिगृहीतया) अपने सन्तानों के रक्षक पति को ग्रहण करनेवाली (त्वया) तेरे साथ (प्रजाभ्यः) सन्तानोत्पत्ति के लिये (प्राणम्) बलयुक्त जीवन का ग्रहण करते हैं, वैसे तेरे साथ मैं सन्तान होने के लिये बल का (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ ॥५४ ॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्री-पुरुषो ! तुम को योग्य है कि अग्नि आदि पदार्थों को उपयोग में ला के परस्पर प्रीति के साथ अति विषयसेवा को छोड़ और सब संसार से बल का ग्रहण करके सन्तानों को उत्पन्न करो ॥५४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः सृष्टेः सकाशात् के क उपकारा ग्राह्या इत्याह ॥

अन्वय:

(अयम्) अग्निः (पुरः) पूर्वम् (भुवः) यो भवति सः (तस्य) (प्राणः) येन प्राणिति सः (भौवायनः) भुवेन सता रूपेण कारणेन निर्वृत्तः (वसन्तः) यः सुगन्धादिभिर्वासयति (प्राणायनः) प्राणा निर्वृत्ता यस्मात् (गायत्री) या गायन्तं त्रायते सा (वासन्ती) वसन्तस्य व्याख्यात्री (गायत्र्यै) गायत्र्याः। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी (गायत्रम्) गायत्र्येव छन्दः (गायत्रात्) (उपांशुः) उपगृहीता (उपांशोः) (त्रिवृत्) यस्त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैर्वर्त्तते सः (त्रिवृतः) (रथन्तरम्) यद्रथै रमणीयैस्तारयति तत् (वसिष्ठः) अतिशयेन वासयिता (ऋषिः) प्रापको विद्वान् (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापतिर्गृहीतो यया स्त्रिया तया (त्वया) (प्राणम्) बलयुक्तं जीवनम् (गृह्णामि) (प्रजाभ्यः)। [अयं मन्त्रः शत०८.१.१.४-६ व्याख्यातः] ॥५४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! यथाऽयं पुरो भुवोऽग्निस्तस्य भौवायनः प्राणः प्राणायनो वसन्तो वासन्ती गायत्री गायत्र्यै गायत्रं गायत्रादुपांशुरुपांशोस्त्रिवृत् त्रिवृतो रथन्तरं वसिष्ठ ऋषिश्च प्रजापतिगृहीतया त्वया सह प्रजाभ्यः प्राणं गृह्णामि तथा त्वया साकमहं प्रजाभ्यो बलं गृह्णामि ॥५४ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्रीपुरुषा अग्न्यादिपदार्थानामुपयोगं कृत्वा परस्परं प्रीत्याऽतिविषयासक्तिं विहाय सर्वस्माज्जगतो बलं संगृह्य प्रजा उत्पाद्याः ॥५४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे स्त्री-पुरुषांनो ! अग्नी वगैरे पदार्थांना उपयोगात आणा. परस्पर प्रेमाने राहून अत्यंत विषयवासनेचा त्याग करून शक्तिमान बनून संताने उत्पन्न करा.