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इ॒ममू॑र्णा॒युं वरु॑णस्य॒ नाभिं॒ त्वचं॑ पशू॒नां द्वि॒पदां॒ चतु॑ष्पदाम्। त्वष्टुः॑ प्र॒जानां॑ प्रथ॒मं ज॒नित्र॒मग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन्। उष्ट्र॑मार॒ण्यमनु॑ ते दिशामि॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो᳕ निषी॑द। उष्ट्रं॑ ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु ॥५० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मम्। ऊ॒र्णा॒युम्। वरु॑णस्य। नाभि॑म्। त्वच॑म्। प॒शू॒नाम्। द्वि॒पदा॒मिति द्वि॒ऽपदा॑म्। चतु॑ष्पदाम्। चतुः॑ऽपदा॒मिति॒ चतुः॑ऽपदाम्। त्वष्टुः॑। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म्। प्र॒थ॒मम्। ज॒नित्र॑म्। अग्ने॑। मा। हि॒ꣳसीः॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन्। उष्ट्र॑म्। आ॒र॒ण्यम्। अनु॑। ते॒। दि॒शा॒मि॒। तेन॑। चि॒न्वा॒नः। त॒न्वः᳖। नि। सी॒द॒। उष्ट्र॑म्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥५० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:50


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर किन पशुओं को न मारना और किन को मारना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्या को प्राप्त हुए राजन् ! तू (वरुणस्य) प्राप्त होने योग्य श्रेष्ठ सुख के (नाभिम्) संयोग करनेहारे (इमम्) इस (द्विपदाम्) दो पगवाले मनुष्य, पक्षी आदि (चतुष्पदाम्) चार पगवाले (पशूनाम्) गाय आदि पशुओं की (त्वचम्) चमड़े से ढाँकनेवाले और (त्वष्टुः) सुखप्रकाशक ईश्वर की (प्रजानाम्) प्रजाओं के (प्रथमम्) आदि (जनित्रम्) उत्पत्ति के निमित्त (परमे) उत्तम (व्योमन्) आकाश में वर्त्तमान (ऊर्णायुम्) भेड़ आदि को (मा हिंसीः) मत मार (ते) तेरे लिये मैं ईश्वर (यम्) जिस (आरण्यम्) बनैले (उष्ट्रम्) हिंसक ऊँट को (अनुदिशामि) बतलाता हूँ, (तेन) उससे सुरक्षित अन्नादि से (चिन्वानः) बढ़ता हुआ (तन्वः) शरीर में (निषीद) निवास कर (ते) तेरा (शुक्) शोक उस जंगली ऊँट को (ऋच्छतु) प्राप्त हो और जिस द्वेषीजन से हम लोग (द्विष्मः) अप्रीति करें (तम्) उसको (ते) तेरा (शुक्) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवे ॥५० ॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जिन भेड़ आदि के रोम और त्वचा मनुष्यों के सुख के लिये होती हैं और जो ऊँट भार उठाते हुए मनुष्यों को सुख देते हैं, उनको जो दुष्टजन मारा चाहें, उनको संसार के दुःखदायी समझो और उनको अच्छे प्रकार दण्ड देना चाहिये और जो जंगली ऊँट हानिकारक हों, उन्हें भी दण्ड देना चाहिये ॥५० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के पशवो न हिंस्या हिंस्याश्चेत्याह ॥

अन्वय:

(इमम्) (ऊर्णायुम्) अविम् (वरुणस्य) वरस्य प्राप्तव्यस्य सुखस्य (नाभिम्) निबन्धनम् (त्वचम्) (पशूनाम्) (द्विपदाम्) (चतुष्पदाम्) (त्वष्टुः) सुखप्रकाशकस्य (प्रजानाम्) (प्रथमम्) आदिमम् (जनित्रम्) उत्पत्तिनिमित्तम् (अग्ने) (मा) (हिंसीः) हिंस्याः (परमे) (व्योमन्) (उष्ट्रम्) (आरण्यम्) अरण्ये भवम् (अनु) (ते) (दिशामि) (तेन) (चिन्वानः) (तन्वः) (नि) (सीद) (उष्ट्रम्) इत्यादि पूर्ववत्। [अयं मन्त्रः शत०७.५.२.३५ व्याख्यातः] ॥५० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! प्राप्तविद्य राजंस्त्वमिमं वरुणस्य नाभिं द्विपदां चतुष्पदां पशूनां त्वचं त्वष्टुः प्रजानां प्रथमं जनित्रं परमे व्योमन् वर्त्तमानमूर्णायुं मा हिंसीः। ते यं धान्यहिंसकमारण्यमुष्ट्रं हन्तुमनुदिशामि, तेन चिन्वानः सँस्तन्वो मध्ये निषीद। ते शुगारण्यमुष्ट्रमृच्छतु यं ते द्वेष्टारं वयं द्विष्मस्तं शुगृच्छतु ॥५० ॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! येषामव्यादीनां लोमानि त्वगपि मनुष्याणां सुखाय प्रभवति, य उष्ट्रा भारं वहन्तो मनुष्यान् सुखयन्ति, तान् ये हन्तुमिच्छेयुस्ते जगत्पीडका विज्ञेयाः सम्यग् दण्डनीयाश्च, ये चारण्या उष्ट्रा हानिकरास्तेऽपि दण्डनीयाः ॥५० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! मेंढी इत्यादींचे केस व त्वचा माणसाच्या सुखासाठी असतात. उंट भारवाहक बनून माणसांना सुखी करतात त्यांना जे दुष्ट लोक मारू इच्छितात ते जगाला दुःखी करतात त्यामुळे त्यांना चांगल्या प्रकारे शिक्षा दिली पाहिजे.