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चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आ प्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽ अ॒न्तरि॑क्ष॒ꣳ सूर्य्य॑ऽ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥४६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

चि॒त्रम्। दे॒वाना॑म्। उत्। अ॒गा॒त्। अनी॑कम्। चक्षुः॑। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒ग्नेः। आ। अ॒प्राः॒। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। सूर्य्यः॑। आ॒त्मा। जग॑तः। त॒स्थुषः॑। च॒ ॥४६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:46


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर कैसा है, यह यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग जो जगदीश्वर (देवानाम्) पृथिवी आदि दिव्य पदार्थों के बीच (चित्रम्) आश्चर्य्यरूप (अनीकम्) सेना के समान किरणों से युक्त (मित्रस्य) प्राण (वरुणस्य) उदान और (अग्नेः) प्रसिद्ध अग्नि के (चक्षुः) दिखानेवाले (सूर्य्यः) सूर्य्य के समान (उदगात्) उदय को प्राप्त हो रहा है, उस के समान (जगतः) चेतन (च) और (तस्थुषः) जड़ जगत् का (आत्मा) अन्तर्य्यामी हो के (द्यावापृथिवी) प्रकाश-अप्रकाशरूप जगत् और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (आ) अच्छे प्रकार (अप्राः) व्याप्त हो रहा है, उसी जगत् के रचने, पालन करने और संहार-प्रलय करनेहारे व्यापक ब्रह्म की निरन्तर उपासना किया करो ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यह जगत् ऐसा नहीं कि जिसका कर्त्ता, अधिष्ठाता वा ईश्वर कोई न होवे। जो ईश्वर सब का अन्तर्य्यामी, सब जीवों के पाप-पुण्यों के फलों की व्यवस्था करने हारा और अनन्त ज्ञान का प्रकाश करने हारा है, उसी की उपासना से धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फलों को सब मनुष्य प्राप्त होवें ॥४६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

अन्वय:

(चित्रम्) अद्भुतम् (देवानाम्) पृथिव्यादीनां मध्ये (उत्) (अगात्) उदितोऽस्ति (अनीकम्) सेनेव किरणसमूहम् (चक्षुः) दर्शकम् (मित्रस्य) प्राणस्य (वरुणस्य) उदानस्य (अग्नेः) प्रसिद्धस्य (आ) (अप्राः) व्याप्नोति (द्यावापृथिवी) प्रकाशाप्रकाशे जगती (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (सूर्य्यः) सविता (आत्मा) सर्वस्यान्तर्यामी (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) स्थावरस्य (च)। [अयं मन्त्रः शत०७.५.२.२७ व्याख्यातः] ॥४६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! भवन्तो यद् ब्रह्म देवानां चित्रमनीकं मित्रस्य वरुणस्याग्नेश्चक्षुः सूर्य इवोदगात्, जगतस्तस्थुषश्चात्मा सद् द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं चाप्राः, तज्जगन्निर्मातृ पातृ संहतृ व्यापकं सततमुपासीरन् ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न खल्विदं निष्कर्तृकमनधिष्ठातृकमनीश्वरं जगदस्ति। यद् ब्रह्म सर्वान्तर्य्यामि सर्वेषां जीवानां पापपुण्यफलदानव्यवस्थापकमनन्तज्ञानप्रकाशं वर्त्तते, तदेवोपास्य धर्मार्थकाममोक्षफलानि मनुष्यैराप्तव्यानि ॥४६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे जग आपोआप बनलेले नाही. ज्याचा अधिष्ठाता व कर्ता निर्माता ईश्वरच आहे. तो सर्व जीवांच्या पापपुण्याच्या फळाची व्यवस्था करणारा व अनंत ज्ञानाचा प्रकाश करणारा आहे. त्या ईश्वराची उपासना करून धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यांचे फळ सर्व माणसांनी प्राप्त करावे.