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म॒ही द्यौः पृ॑थि॒वी च॑ नऽ इ॒मं य॒ज्ञं मि॑मिक्षताम्। पि॒पृ॒तां नो॒ भरी॑मभिः ॥३२ ॥

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पद पाठ

म॒ही। द्यौः। पृ॒थि॒वी। च॒। नः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒ता॒म्। पि॒पृ॒ताम्। नः॒। भरी॑मभि॒रिति॒ भरी॑मऽभिः ॥३२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

माता पिता अपने सन्तानों को कैसी शिक्षा करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे माता-पिता ! जैसे (मही) बड़ा (द्यौः) सूर्य्यलोक (च) और (पृथिवी) भूमि सब संसार को सींचते और पालन करते हैं, वैसे तुम दोनों (नः) हमारे (इमम्) इस (यज्ञम्) सेवने योग्य विद्याग्रहणरूप व्यवहार को (मिमिक्षताम्) सेचन अर्थात् पूर्ण होने की इच्छा करो और (भरीमभिः) धारण-पोषण आदि कर्मों से (नः) हमारा (पिपृताम्) पालन करो ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वसन्त ऋतु में पृथिवी और सूर्य्य सब संसार का धारण, प्रकाश और पालन करते हैं, वैसे माता-पिता को चाहिये कि अपने सन्तानों के लिये वसन्तादि ऋतुओं में अन्न, विद्यादान और अच्छी शिक्षा करके पूर्ण विद्वान् पुरुषार्थी करें ॥३२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मातापितृभ्यां स्वसन्तानाः कथं शिक्ष्या इत्याह ॥

अन्वय:

(मही) महती (द्यौः) सूर्यः (पृथिवी) भूमिः (च) (नः) अस्माकम् (इमम्) (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यं गृहाश्रमव्यवहारम् (मिमिक्षताम्) सेक्तुमिच्छेताम् (पिपृताम्) पालयतम् (नः) अस्मान् (भरीमभिः) धारणपोषणाद्यैः कर्मभिः ॥३२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मातापितरौ ! यथा मही द्यौः पृथिवी च सर्वं सिञ्चतः पालयतस्तथा युवां न इमं यज्ञं मिमिक्षतां भरीमभिर्नः पिपृताम् ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वसन्तर्त्तौ भूमिसूर्यौ सर्वेषां धारणं प्रकाशं पालनञ्च कुरुतस्तथा मातापितरः स्वसन्तानेभ्यो वसन्तादिष्वृतुष्वन्नं विद्यादानं सुशिक्षां च कृत्वा पूर्णान् विदुषः पुरुषार्थिनः संपादयेयुः ॥३२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे वसंत ऋतूमध्ये पृथ्वी जगाला धारण करते व सूर्य आपल्या प्रकाशाने पालन करतो त्याप्रमाणे माता व पिता यांनी आपल्या संतानांना वसंत इत्यादी ऋतूंमध्ये अन्न, विद्यादान व चांगले शिक्षण देऊन पूर्ण विद्वान व पुरुषार्थी बनवावे.