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यास्ते॑ऽ अग्ने॒ सूर्य्ये॒ रुचो॒ दिव॑मात॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभिः॑। ताभि॑र्नोऽ अ॒द्य सर्वा॑भी रु॒चे जना॑य नस्कृधि ॥२२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याः। ते॒। अ॒ग्ने॒। सूर्ये॑। रुचः॑। दिव॑म्। आ॒त॒न्वन्तीत्या॑ऽत॒न्वन्ति॑। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। ताभिः॑। नः॒। अ॒द्य। सर्वा॑भिः। रु॒चे। जना॑य। नः॒। कृ॒धि॒ ॥२२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:22


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह स्त्री कैसी होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजधारिणी पढ़ानेहारी विदुषी स्त्री ! (याः) जो (ते) तेरी रुचि हैं, (ताभिः) उन (सर्वाभिः) सब रुचियों से युक्त (नः) हम को जैसे (रुचः) दीप्तियाँ (सूर्य्ये) सूर्य्य में (रश्मिभिः) किरणों से (दिवम्) प्रकाश को (आतन्वन्ति) अच्छे प्रकार विस्तारयुक्त करती हैं, वैसे तू भी अच्छे प्रकार विस्तृत सुखयुक्त कर और (अद्य) आज (रुचे) रुचि करानेहारे (जनाय) प्रसिद्ध मनुष्य के लिये (नः) हम लोगों को प्रीतियुक्त (कृधि) कर ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ब्रह्माण्ड में सूर्य्य की दीप्ति सब वस्तुओं को प्रकाशित कर रुचियुक्त करती है, वैसे ही विदुषी श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्रियाँ घर के सब कार्य्यों का प्रकाश करती हैं। जिस कुल में स्त्री और पुरुष आपस में प्रीतियुक्त हों, वहाँ सब विषयों में कल्याण ही होता है ॥२२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सा कीदृशी भवेदित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(याः) (ते) तव (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमाने (सूर्य्ये) अर्के (रुचः) दीप्तयः (दिवम्) प्रकाशम् (आतन्वन्ति) समन्ताद् विस्तृण्वन्ति (रश्मिभिः) किरणैः (ताभिः) रुचिभिः (नः) अस्मान् (अद्य) (सर्वाभिः) (रुचे) रुचिकारकाय (जनाय) प्रसिद्धाय (नः) अस्मान् (कृधि) कुरु। अत्र विकरणलुक्। [अयं मन्त्रः शत०७.४.२.२१ व्याख्यातः] ॥२२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने विदुष्यध्यापिके स्त्रि ! यास्ते रुचयः सन्ति, ताभिः सर्वाभिर्नो यथा रुचः सूर्य्ये रश्मिभिर्दिवमातन्वन्ति, तथा त्वमातनु। अद्य रुचे जनाय नः प्रीतान् कृधि ॥२२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ब्रह्माण्डे सूर्यस्य दीप्तयः सर्वाणि वस्तूनि प्रकाश्य रोचयन्ति, तथैव विदुष्यः साध्व्यः पतिव्रताः स्त्रियः सर्वाणि गृहकर्माणि प्रकाशयन्ति। यत्र स्त्रीपुरुषौ परस्परं प्रीतिमन्तौ स्याताम्, तत्र सर्वं कल्याणमेव ॥२२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोमालंकार आहे. जसे ब्रह्मांडामध्ये सूर्यकिरण सर्व वस्तूंना प्रकाशित करून पदार्थांना उत्तम बनवितात, तसेच विदुषी, श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्रिया घरातील सर्व काम उत्तम प्रकारे करतात. ज्या कुलात स्त्री व पुरुष आपापसात प्रेमपूर्वक व्यवहार करतात तेथे सर्व बाबतीत कल्याणच होते.