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या श॒तेन॑ प्रत॒नोषि॑ स॒हस्रे॑ण वि॒रोह॑सि। तस्या॑स्ते देवीष्टके वि॒धेम॑ ह॒विषा॑ व॒यम् ॥२१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

या। श॒तेन॑। प्र॒त॒नोषीति॑ प्रऽत॒नोषि॑। स॒हस्रे॑ण। वि॒रोह॒सीति॑ वि॒ऽरोह॑सि। तस्याः॑। ते॒। दे॒वि॒। इ॒ष्ट॒के॒। वि॒धेम॑। ह॒विषा॑। व॒यम् ॥२१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:21


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसी हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इष्टके) र्इंट के समान दृढ़ अवयवों से युक्त, शुभ गुणों से शोभायमान (देवि) प्रकाशयुक्त स्त्री जैसे र्इंट सैकड़ों संख्या से मकान आदि का विस्तार और हजारह से बहुत बढ़ा देती है, वैसे (या) जो तू हम लोगों को (शतेन) सैकड़ों पुत्र-पौत्रादि सम्पत्ति से (प्रतनोषि) विस्तारयुक्त करती और (सहस्रेण) हजारह प्रकार के पदार्थों से (विरोहसि) विविध प्रकार बढ़ाती है, (तस्याः) उस (ते) तेरी (हविषा) देने योग्य पदार्थों से (वयम्) हम लोग (विधेम) सेवा करें ॥२१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सैकड़ों प्रकार से हजारह र्इंट घर रूप बन के सब प्राणियों को सुख देती हैं, वैसे जो श्रेष्ठ स्त्री लोग पुत्र-पौत्र ऐश्वर्य्य और भृत्य आदि से सब को आनन्द देवें, उनका पुरुष लोग निरन्तर सत्कार करें, क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष और स्त्रियों के सङ्ग के बिना शुभ गुणों से युक्त सन्तान कभी नहीं हो सकते और ऐसे सन्तानों के बिना माता पिता को सुख कब मिल सकता है ॥२१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सा कीदृशी भवेदित्याह ॥

अन्वय:

(या) (शतेन) असंख्यातेन (प्रतनोषि) (सहस्रेण) असंख्यातेन (विरोहसि) विविधतया वर्धसे (तस्याः) (ते) तव (देवि) देदीप्यमाने (इष्टके) इष्टकेव शुभैर्गुणैः सुशोभिते (विधेम) परिचरेम (हविषा) होतुमर्हेण (वयम्)। [अयं मन्त्रः शत०७.४.२.१५ व्याख्यातः] ॥२१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इष्टके इष्टकावद् दृढांगे देवि स्त्रि ! यथेष्टका शतेन प्रतनोति सहस्रेण विरोहति, तथा या त्वमस्मान् शतेन प्रतनोषि सहस्रेण च विरोहसि, तस्यास्ते तव हविषा वयं विधेम त्वां परिचरेम ॥२१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा शतशः सहस्राणीष्टका गृहाकारा भूत्वा सर्वान् सुखयन्ति, तथैव याः साध्व्यः स्त्रियः पुत्रपौत्रभृत्यादिभिः सर्वानानन्दयेयुस्ताः पुरुषाः सततं सत्कुर्य्युः। नहि सत्पुरुषस्त्रीसमागमेन विना शुभगुणाढ्यान्यपत्यानि जायेरन्। एवंभूतैः सन्तानैर्विना मातापितॄणां कुतः सुखं जायेत ॥२१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. शेकडो प्रकारच्या विटांनी हजारो प्रकारची घरे बनविली जातात व सर्वांना ती सुखकारक ठरतात, तसेच ज्या श्रेष्ठ स्त्रिया पुत्र-पौत्रांचे ऐश्वर्य देऊन व नोकरचाकर इत्यादींद्वारे सर्वांना आनंदी करतात त्यांचा पुरुषांनी सदैव सत्कार करावा. कारण श्रेष्ठ पुरुष व स्त्रिया यांच्याशिवाय शुभ गुणांनी युक्त अशी संताने कधीही होऊ शकत नाहीत व अशा संतानांशिवाय माता व पिता यांना सुख कसे मिळू शकेल?