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विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्रा॑य। अ॒ग्निष्ट्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द ॥१९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्व॑स्मै। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नायेत्य॑पऽआ॒नाय॑। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। प्र॒ति॒ष्ठायै॑। प्र॒ति॒स्थाया॒ इति॑ प्रति॒ऽस्थायै॑। च॒रित्रा॑य। अ॒ग्निः। त्वा॒। अ॒भि। पा॒तु॒। म॒ह्या। स्व॒स्त्या। छ॒र्दिषा॑। शन्त॑मे॒नेति॒ शम्ऽत॑मेन। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒ ॥१९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:19


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे स्त्री-पुरुष आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! जो (अग्निः) विज्ञानयुक्त तेरा पति (मह्या) बड़ी (स्वस्त्या) सुख प्राप्त करानेहारी क्रिया और (छर्दिषा) प्रकाशयुक्त (शन्तमेन) अत्यन्तसुखदायक कर्म के साथ (विश्वस्मै) सम्पूर्ण (प्राणाय) जीवन के हेतु प्राण (अपानाय) दुःखों की निवृत्ति (व्यानाय) अनेक प्रकार के उत्तम व्यवहारों की सिद्धि (उदानाय) उत्तम बल (प्रतिष्ठायै) सत्कार और (चरित्राय) धर्म का आचरण करने के लिये जिस (त्वा) तेरी (अभिपातु) सन्मुख होकर रक्षा करे, सो तू (तया) उस (देवतया) दिव्यस्वरूप पति के साथ (अङ्गिरस्वत्) जैसे कार्य्य-कारण का सम्बन्ध है, वैसे (ध्रुवा) निश्चल हो के (सीद) प्रतिष्ठायुक्त हो ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - पुरुषों को योग्य है कि अपनी-अपनी स्त्रियों के सत्कार से सुख और व्यभिचार से रहित होके प्रीतिपूर्वक आचरण और उनकी रक्षा आदि निरन्तर करें, और इसी प्रकार स्त्री लोग भी रहें। अपनी स्त्री को छोड़ अन्य स्त्री की इच्छा न पुरुष और न अपने पति को छोड़ दूसरे पुरुष का सङ्ग स्त्री करे। ऐसे ही आपस में प्रीतिपूर्वक ही दोनों सदा वर्त्तें ॥१९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ परस्परं कथं वर्त्तेयातामित्याह ॥

अन्वय:

(विश्वस्मै) संपूर्णाय (प्राणाय) जीवनहेतवे (अपानाय) दुःखनिवारणाय (व्यानाय) विविधोत्तमव्यवहाराय (उदानाय) उत्कृष्टाय बलाय (प्रतिष्ठायै) सत्कृतये (चरित्राय) धर्माचरणाय (अग्निः) विज्ञानवान् पतिः (त्वा) त्वाम् (अभि) आभिमुख्यतया (पातु) रक्षतु (मह्या) महत्या (स्वस्त्या) प्रापकसुखक्रियया (छर्दिषा) प्रदीप्तेन (शन्तमेन) अत्यन्तसुखरूपेण कर्मणा (तया) (देवतया) विवाहितपतिरूपया सुखप्रदया (अङ्गिरस्वत्) कारणवत् (ध्रुवा) निश्चलस्वरूपा (सीद) अवस्थिता भव। [अयं मन्त्रः शत०७.४.२.८ व्याख्यातः] ॥१९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! योऽग्निस्ते पतिर्मह्या स्वस्त्या शन्तमेन छर्दिषा विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय यां त्वाभिपातु, सा त्वं तया देवतया सहाऽङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद ॥१९ ॥
भावार्थभाषाः - पुरुषाः स्वस्वस्त्रीणां सत्कारसुखाभ्यामव्यभिचारेण च प्रियाचरणं पालनादिकं च सततं कुर्य्युः, स्त्रियोऽप्येवमेव। न स्वस्त्रियं विहायान्यां पुरुषः, स्वपुरुषं विहायान्यं स्त्री च सङ्गच्छेत्। एवं परस्परस्य प्रियाचरणावुभौ सदा वर्त्तेयाताम् ॥१९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - पुरुषांनी आपापल्या स्त्रियांचा सन्मान करून सुख मिळवावे. व्यभिचाररहित होऊन प्रीतिपूर्वक आचरण करावे व त्यांचे सदैव रक्षण करावे. याप्रमाणे स्त्रियांनीही वागावे. आपल्या पत्नीला सोडून परस्त्रीची इच्छा पुरुषाने करू नये किंवा स्त्रीने परपुरुषाची इच्छा धरू नये. याप्रमाणे आपापसात नेहमी प्रीतिपूर्वक राहावे.