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ध्रु॒वासि॑ ध॒रुणास्तृ॑ता वि॒श्वक॑र्मणा। मा त्वा॑ समु॒द्रऽ उद्व॑धी॒न्मा सु॑प॒र्णोऽअव्य॑थमाना पृथि॒वीं दृ॑ꣳह ॥१६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ध्रु॒वा। अ॒सि॒। ध॒रुणा॑। आस्तृ॒तेत्याऽस्तृ॑ता। वि॒श्वक॑र्म॒णेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मणा। मा। त्वा॒। स॒मु॒द्रः। उत्। व॒धी॒त्। मा। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽप॒र्णः। अव्य॑थमाना। पृ॒थि॒वीम्। दृ॒ꣳह॒ ॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजपत्नी कैसी होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजा की स्त्री ! जिस कारण (विश्वकर्मणा) सब धर्मयुक्त काम करनेवाले अपने पति के साथ वर्त्तती हुई (आस्तृता) वस्त्र, आभूषण और श्रेष्ठ गुणों से ढँपी हुई (धरुणा) विद्या और धर्म की धारणा करनेहारी (ध्रुवा) निश्चल (असि) है, सो तू (अव्यथमाना) पीड़ा से रहित हुई (पृथिवीम्) अपनी राज्यभूमि को (उद्दृंह) अच्छे प्रकार बढ़ा (त्वा) तुझ को (समुद्रः) जार लोगों का व्यवहार (मा) मत (वधीत्) सतावे और (सुपर्णः) सुन्दर रक्षा किये अवयवों से युक्त तेरा पति (मा) नहीं मारे ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - जैसी राजनीति विद्या को राजा पढ़ा हो, वैसी ही उसकी राणी भी पढ़ी होनी चाहिये। सदैव दोनों परस्पर पतिव्रता, स्त्रीव्रत हो के न्याय से पालन करें। व्यभिचार और काम की व्यथा से रहित होकर धर्मानुकूल पुत्रों को उत्पन्न करके स्त्रियों का स्त्री राणी और पुरुषों का पुरुष राजा न्याय करे ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सा कीदृशी भवेदित्याह ॥

अन्वय:

(ध्रुवा) निष्कम्पा (असि) (धरुणा) विद्याधर्मधर्त्री (आस्तृता) वस्त्रालङ्कारशुभगुणैः सम्यगाच्छादिता (विश्वकर्मणा) विश्वानि समग्राणि धर्म्यकर्माणि यस्य पत्युस्तेन (मा) (त्वा) त्वाम् (समुद्रः) समुद्द्रवन्ति कामुका यस्मिन् व्यवहारे सः (उत्) (वधीत्) हन्यात् (मा) (सुपर्णः) शोभनानि पर्णानि पालितान्यङ्गानि यस्य सः (अव्यथमाना) पीडामप्राप्ता (पृथिवीम्) स्वराज्यभूमिम् (दृꣳह) वर्धय। [अयं मन्त्रः शत०७.४.२.५ व्याख्यातः] ॥१६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजपत्नि ! यतो विश्वकर्मणा पत्या सह वर्त्तमानाऽऽस्तृता धरुणा ध्रुवाऽसि, साऽव्यथमाना सती त्वं पृथिवीमुद्दृंह त्वा समुद्रो मावधीत्, सुपर्णश्च मा वधीत् ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - यादृशीं राजनीतिविद्यां राजाऽधीतवान् भवेत्, तादृशीमेव राज्ञ्यप्यधीतवती स्यात्। सदैवोभौ पतिव्रतास्त्रीव्रतौ भूत्वा न्यायेन पालनं कुर्य्याताम्। व्यभिचारकामव्यथारहितौ भूत्वा धर्मेण सन्तानानुत्पाद्य स्त्रीन्यायं स्त्री पुरुषन्यायं पुरुषश्च कुर्य्यात्। ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा जसा राजनीतीमध्ये निपुण असतो तसे राणीनेही असावे. दोघांनीही पातिव्रत्य व पत्नीव्रताचे पालन करून न्यायाने वागावे. व्यभिचार व कामव्यथेपासून दूर राहून धर्मानुकूल पुत्र उत्पन्न करावेत. राणीने स्त्रियांचा न्याय करावा व पुरुषांनी पुरुषांचा त्याय करावा.