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ऊ॒र्ध्वो भ॑व॒ प्रति॑वि॒ध्याध्य॒स्मदा॒विष्कृ॑णुष्व॒ दैव्या॑न्यग्ने। अव॑ स्थि॒रा त॑नुहि यातु॒जूनां॑ जा॒मिमजा॑मिं॒ प्रमृ॑णीहि॒ शत्रू॑न्। अ॒ग्नेष्ट्वा॒ तेज॑सा सादयामि ॥१३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऊ॒र्ध्वः। भ॒व॒। प्रति॑। वि॒ध्य॒। अधि॑। अ॒स्मत्। आ॒विः। कृ॒णु॒ष्व॒। दैव्या॑नि। अ॒ग्ने॒। अव॑। स्थि॒रा। त॒नु॒हि॒। या॒तु॒जूना॒मिति॑ यातु॒ऽजूना॑म्। जा॒मिम्। अजा॑मिम्। प्र। मृ॒णी॒हि॒। शत्रू॑न्। अ॒ग्नेः। त्वा॒। तेज॑सा। सा॒द॒या॒मि॒ ॥१३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:13


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा किस प्रकार का हो, इस का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) तेजस्विन् विद्वान् पुरुष ! जिसलिये आप (ऊर्ध्वः) उत्तम (भव) हूजिये, धर्म के (प्रति) अनुकूल होके (विध्य) दुष्ट शत्रुओं को ताड़ना दीजिये, (अस्मत्) हमारे (स्थिरा) निश्चल (दैव्यानि) विद्वानों के रचे पदार्थों को (आविः) प्रकट (कृणुष्व) कीजिये, सुखों को (तनुहि) विस्तारिये, (यातुजूनाम्) परपदार्थों को प्राप्त होने और वेगवाले शत्रुजनों के (जामिम्) भोजन के और (अजामिम्) अन्य व्यवहार के स्थान को (अव) अच्छे प्रकार विस्तारपूर्वक नष्ट कीजिये और (शत्रून्) शत्रुओं को (प्रमृणीहि) बल के साथ मारिये, इसलिये मैं (त्वा) आपको (अग्नेः) अग्नि के (तेजसा) प्रकाश के (अधि) सम्मुख (सादयामि) स्थापन करता हूँ ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि राज्य के ऐश्वर्य्य को पाके उत्तम गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त होवें, प्रजाओं और और दरिद्रों को निरन्तर सुख देवें। दुष्ट अधर्माचारी मनुष्यों को निरन्तर शिक्षा करें और सबसे उत्तम पुरुष को सभापति मानें ॥१३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

(ऊर्ध्वः) उत्कृष्टः (भव) (प्रति) (विध्य) ताडय (अधि) (अस्मत्) (आविः) प्राकट्ये (कृणुष्व) (दैव्यानि) देवैर्विद्वद्भिर्निवृत्तानि वस्तूनि (अग्ने) (अव) (स्थिरा) निश्चलानि (तनुहि) विस्तृणुहि (यातुजूनाम्) ये यान्ति ये च जवन्ते तेषाम् (जामिम्) भोजनयुक्तम् (अजामिम्) भोजनरहितं स्थानम्। अत्र जमुधातोर्वपादिभ्य इतीञ् (प्र) (मृणीहि) हिन्धि (शत्रून्) अरीन् (अग्नेः) पावकस्य (त्वा) त्वाम् (तेजसा) प्रकाशेन सह (सादयामि) स्थापयामि। [अयं मन्त्रः शत०७.४.१.४१ व्याख्यातः] ॥१३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने विद्वन् राजन् ! यतस्त्वमूर्ध्वो भव, शत्रून् प्रति विध्यास्मत् स्थिरा दैव्यान्याविष्कृणुष्व, सुखानि तनुहि, यातुजूनां जामिमजामिमवतनुहि विनाशय, शत्रून् प्रमृणीहि। तस्मादहं त्वाग्नेस्तेजसाधिसादयामि ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या राज्यैश्वर्य्यं प्राप्योत्तमगुणकर्मस्वभावा भवेयुः, प्रजाभ्यो दरिद्रेभ्यश्च सततं सुखं दद्युः। धर्मे स्थिराः सन्तो दुष्टाधर्माचारिणो मनुष्यान् सततं शिक्षयेयुः, सर्वोत्कृष्टं सभापतिं च मन्येरन् ॥१३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी राज्याचे ऐश्वर्य प्राप्त करून उत्तम गुण, कर्म स्वभावयुक्त बनावे. प्रजा व दरिद्री लोकांना सतत सुख द्यावे. दुष्ट व अधर्माचे आचरण करणाऱ्या माणसांना नेहमी शिक्षा करावी व उत्तम पुरुषाला राजा करावे.