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उद॑ग्ने तिष्ठ॒ प्रत्यात॑नुष्व॒ न्य᳕मित्राँ॑२ऽ ओषतात् तिग्महेते। यो नो॒ऽ अरा॑तिꣳ समिधान च॒क्रे नी॒चा तं ध॑क्ष्यत॒सं न शुष्क॑म् ॥१२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। अ॒ग्ने॒। ति॒ष्ठ॒। प्रति॑। आ। त॒नु॒ष्व॒। नि। अ॒मित्रा॑न्। ओ॒ष॒ता॒त्। ति॒ग्म॒हे॒त॒ इति॑ तिग्मऽहेते। यः। नः॒। अरा॑तिम्। स॒मि॒धा॒नेति॑ सम्ऽइधान। च॒क्रे। नी॒चा। तम्। ध॒क्षि॒। अ॒त॒सम्। न। शुष्क॑म् ॥१२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) तेजधारी सभा के स्वामी ! आप राजधर्म के बीच (उत्तिष्ठ) उन्नति को प्राप्त हूजिये। धर्मात्मा पुरुषों के (प्रति) लिये (आतनुष्व) सुखों का विस्तार कीजिये। हे (तिग्महेते) तीव्र दण्ड देनेवाले राजपुरुष ! (अमित्रान्) धर्म के द्वेषी शत्रुओं को (न्योषतात्) निरन्तर जलाइये। हे (समिधान) सम्यक् तेजधारी जन ! (यः) जो (नः) हमारे (अरातिम्) शत्रु को उत्साही (चक्रे) करता है, (तम्) उसको (नीचा) नीची दशा में करके (शुष्कम्) सूखे (अतसम्) काष्ठ के (न) समान (धक्षि) जलाइये ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजा आदि सभ्यजनों को चाहिये कि धर्म और विनय में समाहित होके जल के समान मित्रों को शीतल करें, अग्नि के समान शत्रुओं को जलावें। जो उदासीन होकर हमारे शत्रुओं को बढ़ावे, उसको दृढ़ बन्धनों से बाँध के निष्कण्टक राज्य करें ॥१२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

(उत्) (अग्ने) सभाध्यक्ष (तिष्ठ) (प्रति) (आ) (तनुष्व) (नि) (अमित्रान्) धर्मद्वेष्टॄन् शत्रून् (ओषतात्) दह (तिग्महेते) तिग्मस्तीव्रो हेतिवज्रो दण्डो यस्य सः। हेतिरिति वज्रनामसु पठितम् ॥ (निघं०२.२०) (यः) (नः) अस्माकम् (अरातिम्) शत्रुम् (समिधान) सम्यक् तेजस्विन् (चक्रे) करोति (नीचा) न्यग्भूतं कृत्वा (तम्) (धक्षि) दह। अत्र विकरणलुक् (अतसम्) काष्ठम् (न) इव (शुष्कम्) अनार्द्रम् ॥१२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! त्वं राजधर्म उत्तिष्ठ, धार्मिकान् प्रत्यातनुष्व। हे तिग्महेतेऽमित्रान् न्योषतात्। हे समिधान ! यो नोऽरातिं चक्रे, तं नीचा शुष्कमतसं न धक्षि ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। राजादयः सभ्या धर्मे विनये समाहिता भूत्वा जलमिव मित्रान् शीतयेयुः। अग्निरिव शत्रून् दहेयुः। य उदासीनः स्थित्वाऽस्माकं शत्रूनुत्पादयेत् तं दृढं बन्धं बध्वा निष्कण्टकं राज्यं कुर्य्युः ॥१२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजा वगैरे सभ्य लोकांनी धर्माने व विनयपूर्वक वागून मित्रांना जलासारखे शीतल करावे. अग्नीप्रमाणे शत्रूंचे दहन करावे. जो शत्रूंचे बल वाढवितो त्याला दृढ बंधनाने बांधून राज्य निष्कंटक करावे.