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मयि॑ गृह्णा॒म्यग्रे॑ अ॒ग्निꣳ रा॒यस्पोषा॑य सुप्रजा॒स्त्वाय॑ सु॒वीर्या॑य। मामु॑ दे॒वताः॑ सचन्ताम् ॥१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मयि॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। अग्रे॑। अ॒ग्निम्। रा॒यः। पोषा॑य। सु॒प्र॒जा॒स्त्वायेति॑ सुप्रजाः॒ऽत्वाय॑। सु॒वीर्य्या॒येति॑ सु॒ऽवीर्य्या॑य। माम्। उ॒ इत्यूँ॑। दे॒वताः॑। स॒च॒न्ता॒म् ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तेरहवें अध्याय का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को पहिली अवस्था में क्या-क्या करना चाहिये, यह विषय कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे कुमार वा कुमारियो ! जैसे मैं (अग्रे) पहिले (मयि) मुझ में (रायः) विज्ञान आदि धन की (पोषाय) पुष्टि (सुप्रजास्त्वाय) सुन्दर प्रजा होने के लिये और (सुवीर्य्याय) रोगरहित सुन्दर पराक्रम होने के अर्थ (अग्निम्) उत्तम विद्वान् को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ, जिससे (माम्) मुझ को (उ) ही (देवताः) उत्तम विद्वान् वा उत्तम गुण (सचन्ताम्) मिलें, वैसे तुम लोग भी करो ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को यह उचित है कि ब्रह्मचर्य्ययुक्त कुमारावस्था में वेदादि शास्त्रों के पढ़ने से पदार्थविद्या, उत्तम कर्म और ईश्वर की उपासना तथा ब्रह्मज्ञान को स्वीकार करें, जिससे श्रेष्ठ गुण और आप्त विद्वानों को प्राप्त होके उत्तम धन, सन्तानों और पराक्रम को प्राप्त होवें ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैरादिमाऽवस्थायां किं किं कार्य्यमित्याह ॥

अन्वय:

(मयि) आत्मनि (गृह्णामि) (अग्रे) (अग्निम्) परमविद्वांसम् (रायः) विज्ञानादिधनस्य (पोषाय) पुष्टये (सुप्रजास्त्वाय) शोभनाश्च ताः प्रजाः सुप्रजास्तासां भावाय (सुवीर्य्याय) आरोग्येण सुष्ठु पराक्रमाय (माम्) (उ) (देवताः) दिव्या विद्वांसो गुणा वा (सचन्ताम्) समवयन्तु। [अयं मन्त्रः शत०७.४.१.२ व्याख्यातः] ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे कुमाराः कुमार्य्यश्च ! यथाऽहमग्रे मयि रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्य्यायाग्निं गृह्णामि, येन मामु देवताः सचन्ताम्, तथा यूयमपि कुरुत ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणामिदं समुचितमस्ति ब्रह्मचर्यकुमारावस्थायां वेदाद्यध्ययनेन पदार्थविद्यां, ब्रह्मकर्म, ब्रह्मोपासनां, ब्रह्मज्ञानं स्वीकुर्युर्येन दिव्यान् गुणानाप्तान् विदुषश्च प्राप्योत्तमश्रीप्रजापराक्रमान् प्राप्नुयुरिति ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी युवावस्थेतच ब्रह्मचर्याचे पालन करून वेदादी शास्त्राचे अध्ययन करावे व पदार्थ विद्या, उत्तम कर्म, ईश्वराची उपासना आणि ब्रह्मज्ञान यांचा अंगीकार करावा. ज्यामुळे श्रेष्ठ गुण, विद्वानांची संगती, उत्तम धन, संतान व पराक्रम यांची प्राप्ती होईल.