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मा वो॑ रिषत् खनि॒ता यस्मै॑ चा॒हं खना॑मि वः। द्वि॒पाच्चतु॑ष्पाद॒स्मा॒कꣳ सर्व॑मस्त्वनातु॒रम् ॥९५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। वः॒। रि॒ष॒त्। ख॒नि॒ता। यस्मै॑। च॒। अ॒हम्। खना॑मि। वः॒। द्वि॒पादिति॑ द्वि॒ऽपात्। चतु॑ष्पात्। चतुः॑पा॒दिति॒ चतुः॑ऽपात्। अ॒स्माक॑म्। सर्व॑म्। अ॒स्तु॒। अ॒ना॒तु॒रम् ॥९५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:95


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कोई भी मनुष्य ओषधियों की हानि न करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (अहम्) मैं (यस्मै) जिस प्रयोजन के लिये ओषधी को (खनामि) उपाड़ता वा खोदता हूँ, वह (खनिता) खोदी हुई (वः) तुम को (मा) न (रिषत्) दुःख देवे, जिससे (वः) तुम्हारे (च) और (अस्माकम्) हमारे (द्विपात्) दो पगवाले मनुष्य आदि तथा (चतुष्पात्) गौ आदि (सर्वम्) सब प्रजा उस ओषधि से (अनातुरम्) रोगों के दुःखों से रहित (अस्तु) होवें ॥९५ ॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष जिन ओषधियों को खोदे, वह उनकी जड़ न मेटे। जितना प्रयोजन हो उतनी लेकर नित्य रोगों को हटाता रहे, ओषधियों की परम्परा को बढ़ाता रहे कि जिससे सब प्राणी रोगों के दुःखों से बच के सुखी होवें ॥९५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

केनाप्योषधयो नैव ह्रासनीया इत्याह ॥

अन्वय:

(मा) (वः) युष्मान् (रिषत्) हिंस्यात् (खनिता) (यस्मै) प्रयोजनाय (च) (अहम्) (खनामि) उत्पाटयामि (वः) युष्माकम् (द्विपात्) मनुष्यादि (चतुष्पात्) गवादि (अस्माकम्) (सर्वम्) (अस्तु) भवतु (अनातुरम्) रोगातुरतारहितम् ॥९५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! अहं यस्मै यामोषधीं खनामि सा खनिता सती वो युष्मान् मा रिषत्। यतो वोऽस्माकं च सर्वं द्विपाच्चतुष्पादनातुरमस्तु ॥९५ ॥
भावार्थभाषाः - य ओषधीः खनेत् स ता निर्बीजा न कुर्य्यात्। यावत् प्रयोजनं तावदादाय प्रत्यहं रोगान् निवारयेदोषधिसन्ततिं च वर्धयेत्, येन सर्वे प्राणिनो रोगकष्टमप्राप्य सुखिनः स्युः ॥९५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी वृक्षौषधी तोडून घेतल्यानंतर त्यांची मुळे नष्ट करू नयेत. जेवढे आवश्यक असेल तेवढेच घेऊन सदैव रोग नष्ट करावेत. औषधी सतत वाढवावी त्यामुळे सर्व प्राणी रोगरूपी दुःखांपासून बचाव करून सुखी होतील.