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अति॒ विश्वाः॑ परि॒ष्ठा स्ते॒नऽइ॑व व्र॒जम॑क्रमुः। ओष॑धीः॒ प्राचु॑च्यवु॒र्यत्किं च॑ त॒न्वो᳕ रपः॑ ॥८४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अति॑। विश्वाः॑। प॒रि॒ष्ठाः। प॒रि॒स्था इति॑ परि॒ऽस्थाः। स्ते॒नइ॒वेति॑ स्ते॒नःऽइ॑व। व्र॒जम्। अ॒क्र॒मुः॒। ओष॑धीः। प्र। अ॒चु॒च्य॒वुः। यत्। किम्। च॒। त॒न्वः᳖। रपः॑ ॥८४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:84


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कैसे रोग निवृत्त होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जो (परिष्ठाः) सब ओर से स्थित (विश्वा) सब (ओषधीः) सोमलता और जौ आदि ओषधी (व्रजम्) जैसे गोशाला को (स्तेन इव) भित्ति फोड़ के चोर जावे, वैसे पृथिवी फोड़ के (अत्यक्रमुः) निकलती हैं, (यत्) जो (किञ्च) कुछ (तन्वः) शरीर का (रपः) पापों के फल के समान रोगरूप दुःख है, उस सब को (प्राचुच्यवुः) नष्ट करती हैं, उन ओषधियों को युक्ति से सेवन करो ॥८४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे गौओं के स्वामी से धमकाया हुआ चोर भित्ति को फाँद के भागता है, वैसे ही श्रेष्ठ ओषधियों से ताड़ना किये रोग नष्ट हो के भाग जाते हैं ॥८४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कथं रोगा निवर्त्तन्त इत्याह ॥

अन्वय:

(अति) (विश्वाः) सर्वाः (परिष्ठाः) सर्वतः स्थिताः (स्तेन इव) यथा चोरो भित्त्यादिकं तथा (व्रजम्) गोस्थानम् (अक्रमुः) क्राम्यन्ति (ओषधीः) सोमयवाद्याः (प्र) (अचुच्यवुः) च्यावयन्ति नाशयन्ति (यत्) (किम्) (च) (तन्वः) (रपः) पापफलमिव रोगाख्यं दुःखम् ॥८४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यूयं याः परिष्ठा विश्वा ओषधीर्व्रजं स्तेन इवात्यक्रमुः, यत् किं च तन्वो रपस्तत्सर्वं प्राचुच्यवुस्ता युक्त्योपयुञ्जीध्वम् ॥८४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा चोरो गोस्वामिना धर्षितः सन् आभीरघोषमुल्लङ्घ्य पलायते, तथैव सदौषधैस्ताडिता रोगा नश्यन्ति ॥८४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा गाईचा मालक चोराला दरडावतो तेव्हा तो भिंतीवरून उडी मारून पळून जातो, तसे श्रेष्ठ औषधांचा मारा केल्यास रोग नष्ट होऊन पळून जातो.