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अ॒श्व॒त्थे वो॑ नि॒षद॑नं प॒र्णे वो॑ वस॒तिष्कृ॒ता। गो॒भाज॒ऽइत् किला॑सथ॒ यत् स॒नव॑थ॒ पूरु॑षम् ॥७९ ॥

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पद पाठ

अ॒श्व॒त्थे। वः॒। नि॒षद॑नम्। नि॒सद॑न॒मिति॑ नि॒ऽसद॑नम्। प॒र्णे। वः॒। व॒स॒तिः। कृ॒ता। गो॒भाज॒ इति॑ गो॒ऽभाजः॑। इत्। किल॑। अ॒स॒थ॒। यत्। स॒नव॑थ। पूरु॑षम्। पुरु॑ष॒मिति॒ पुरु॑षम् ॥७९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:79


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोग नित्य कैसा विचार करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! ओषधियों के समान (यत्) जिस कारण (वः) तुम्हारा (अश्वत्थे) कल रहे वा न रहे, ऐसे शरीर में (निषदनम्) निवास है; और (वः) तुम्हारा (पर्णे) कमल के पत्ते पर जल के समान चलायमान संसार में ईश्वर ने (वसतिः) निवास (कृता) किया है, इससे (गोभाजः) पृथिवी को सेवन करते हुए (किल) ही (पूरुषम्) अन्न आदि से पूर्ण देहवाले पुरुष को (सनवथ) ओषधि देकर सेवन करो और सुख को प्राप्त होते हुए (इत्) इस संसार में (असथ) रहो ॥७९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को ऐसा विचारना चाहिये कि हमारे शरीर अनित्य और स्थिति चलायमान है, इससे शरीर को रोगों से बचा कर धर्म्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का अनुष्ठान शीघ्र करके अनित्य साधनों से नित्य मोक्ष के सुख को प्राप्त होवें। जैसे ओषधि और तृण आदि फल, फूल, पत्ते, स्कन्ध और शाखा आदि से शोभित होते हैं, वैसे ही रोगरहित शरीरों से शोभायमान हों ॥७९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्याः प्रत्यहं कीदृशं विचारं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

(अश्वत्थे) श्वः स्थाता न स्थाता वा वर्त्तते तादृशे देहे (वः) युष्माकं जीवानाम् (निषदनम्) निवासः (पर्णे) चलिते पत्रे (वः) युष्माकम् (वसतिः) निवासः (कृता) (गोभाजः) ये गां पृथिवीं भजन्ते ते (इत्) इह (किल) खलु (असथ) भवत (यत्) यतः (सनवथ) ओषधिदानेन सेवध्वम्, अत्र विकरणद्वयम् (पूरुषम्) अन्नादिना पूर्णं देहम् ॥७९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! ओषधय इव यद्वोऽश्वत्थे निषदनं वः पर्णे वसतिः कृताऽस्ति, तस्माद् गोभाजः किल पूरुषं सनवथ सुखिन इदसथ ॥७९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरेवं भावनीयमस्माकं शरीराण्यनित्यानि, स्थितिश्चञ्चलास्ति, तस्माच्छरीरमरोगिनं संरक्ष्य धर्मार्थकाममोक्षाणामनुष्ठानं सद्यः कृत्वाऽनित्यैः साधनैर्नित्यं मोक्षसुखं खलु लब्धव्यम्। यथौषधितृणादीनि पत्रपुष्पफलमूलस्कन्धशाखादिभिः शोभन्ते, तथैव नीरोगाणि शोभमानानि भवन्ति ॥७९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी असा विचार करावा की, आपले शरीर अनित्य आहे व स्थिती परिवर्तनशील आहे त्यामुळे शरीर रोगापासून वाचवावे व धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाचे अनुष्ठान करावे आणि अनित्य साधनांनी नित्य मोक्षाचे सुख प्राप्त करावे. जसे वृक्ष व तृण इत्यादी फळे, फुले, पाने, फांद्या इत्यादींनी सुशोभित दिसतात तसेच निरोगी शरीराने शोभायमान व्हावे.