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घृ॒तेन॒ सीता॒ मधु॑ना॒ सम॑ज्यतां॒ विश्वै॑र्दे॒वैरनु॑मता म॒रुद्भिः॑। ऊर्ज॑स्वती॒ पय॑सा॒ पिन्व॑माना॒स्मान्त्सी॑ते॒ पय॑सा॒भ्या व॑वृत्स्व ॥७० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घृ॒तेन॑। सीता॑। मधु॑ना। सम्। अ॒ज्य॒ता॒म्। विश्वैः॑। दे॒वैः। अनु॑म॒तेत्यनु॑ऽमता। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। ऊर्ज॑स्वती। पय॑सा। पिन्व॑माना। अ॒स्मान्। सी॒ते॒। पय॑सा। अ॒भि। आ। व॒वृ॒त्स्व॒ ॥७० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:70


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वैः) सब (देवैः) अन्नादि पदार्थों की इच्छा करनेवाले विद्वान् (मरुद्भिः) मनुष्यों की (अनुमता) आज्ञा से प्राप्त हुआ (पयसा) जल वा दुग्ध से (ऊर्जस्वती) पराक्रम सम्बन्धी (पिन्वमाना) सींचा वा सेवन किया हुआ (सीता) पटेला (घृतेन) घी तथा (मधुना) सहत वा शक्कर आदि से (समज्यताम्) संयुक्त करो। (सीते) पटेला (अस्मान्) हम लोगों को घी आदि पदार्थों से संयुक्त करेगा, इस हेतु से (पयसा) जल से (अभ्याववृत्स्व) बार-बार वर्त्ताओ ॥७० ॥
भावार्थभाषाः - सब विद्वानों को चाहिये कि किसान लोग विद्या के अनुकूल घी, मीठा और जल आदि से संस्कार कर स्वीकार की हुई खेत की पृथिवी को अन्न को सिद्ध करनेवाली करें। जैसे बीज सुगन्धि आदि युक्त करके बोते हैं, वैसे पृथिवी को भी संस्कारयुक्त करें ॥७० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(घृतेन) आज्येन (सीता) साययन्ति क्षेत्रस्थलोष्ठान् क्षयन्ति यया सा काष्ठपट्टिका (मधुना) क्षौद्रेण शर्करादिना वा (सम्) एकीभावे (अज्यताम्) संयुज्यताम् (विश्वैः) सर्वैः (देवैः) अन्नादिं कामयमानैर्विद्वद्भिः (अनुमता) अनुज्ञापिता (मरुद्भिः) मनुष्यैः (ऊर्जस्वती) ऊर्जः पराक्रमसम्बन्धो विद्यते यस्याः सा (पयसा) जलेन दुग्धेन वा (पिन्वमाना) सिक्ता सेविता (अस्मान्) (सीते) सीता (पयसा) जलेन (अभि) (आ) (ववृत्स्व) वर्त्तिता भवतु। [अयं मन्त्रः शत०७.२.२.१० व्याख्यातः] ॥७० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - विश्वैर्देवैर्मरुद्भिर्युष्माभिरनुमता पयसोर्जस्वती पिन्वमाना सीता घृतेन मधुना समज्यताम्। सा सीते सीतास्मान् घृतादिना संयोक्ष्यतीति पयसाऽभ्याववृत्स्व अभ्यावर्त्तताम् ॥७० ॥
भावार्थभाषाः - सर्वे विद्वांसः कृषीवला विद्ययानुज्ञाता घृतमधुजलादिना सुसंस्कृतामनुमतां क्षेत्रभूमिमन्नसुसाधिकां कुर्वन्तु, यथा सुगन्धादियुक्तानि बीजानि कृत्वा वपन्ति, तथैव तामपि सुगन्धेन संस्कृतां कुर्वन्तु ॥७० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व विद्वानांनी त्यांच्या विद्येनुसार शेतकऱ्यांना घृत, मध, जल इत्यादींनी संस्कारित केलेली शेतीची जमीन सुपीक होते हे सिद्ध करून दाखवावे. जसे बीज सुगंधी करून पेरतात तसे पृथ्वीलाही संस्कारित करावे.