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यु॒नक्त॒ सीरा॒ वि यु॒गा त॑नुध्वं कृ॒ते योनौ॑ वपते॒ह बीज॑म्। गि॒रा च॑ श्रु॒ष्टिः सभ॑रा॒ अस॑न्नो॒ नेदी॑य॒ऽइत्सृ॒ण्यः᳖ प॒क्वमेया॑त् ॥६८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒नक्त॑। सीरा॑। वि। यु॒गा। त॒नु॒ध्व॒म्। कृ॒ते। योनौ॑। व॒प॒त॒। इ॒ह। बीज॑म्। गि॒रा। च॒। श्रु॒ष्टिः। सभ॑रा॒ इति॒ सऽभ॑राः। अस॑त्। नः॒। नेदी॑यः। इत्। सृ॒ण्यः᳖। प॒क्वम्। आ। इ॒या॒त् ॥६८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:68


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग (इह) इस पृथिवी वा बुद्धि में साधनों को (वितनुध्वम्) विविध प्रकार से विस्तारयुक्त करो (सीरा) खेती के साधन हल आदि वा नाड़ियाँ और (युगा) जुआओं को (युनक्त) युक्त करो (कृते) हल आदि से जोते वा योग के अङ्गों से शुद्ध किये अन्तःकरण (योनौ) खेत में (बीजम्) यव आदि वा सिद्धि के मूल को (वपत) बोया करो। (गिरा) खेती विषयक कर्मों की उपयोगी सुशिक्षित वाणी (च) और अच्छे विचार से (सभराः) एक प्रकार के धारण और पोषण में युक्त (श्रुष्टिः) शीघ्र हूजिये, जो (सृण्यः) खेतों में उत्पन्न हुए यव आदि अन्न जाति के पदार्थ हैं, उनमें जो (नेदीयः) अत्यन्त समीप (पक्वम्) पका हुआ (असत्) होवे, वह (इत्) ही (नः) हम लोगों को (आ) (इयात्) प्राप्त होवे ॥६८ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोगों को उचित है कि विद्वानों से योगाभ्यास और खेती करने हारों से कृषिकर्म की शिक्षा को प्राप्त हो और अनेक साधनों को बना के खेती और योगाभ्यास करो। इससे जो अन्नादि पका हो, उस-उस का ग्रहण कर भोजन करो और दूसरों को कराओ ॥६८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(युनक्त) युङ्ग्ध्वम् (सीरा) हलादीनि कृष्युपकरणानि नाडीर्वा (वि) विविधार्थे (युगा) युगानि (तनुध्वम्) विस्तृणीत (कृते) हलादिभिः कर्षिते योगाङ्गैर्निष्पादितेऽन्तःकरणे वा (योनौ) क्षेत्रे (वपत) (इह) अस्यां भूमौ बुद्धौ वा (बीजम्) यवादिकं सिद्धिमूलं वा (गिरा) कृषियोगकर्मोपयुक्तया सुशिक्षितया वाचा (च) स्वसुविचारेण (श्रुष्टिः) शीघ्रम्। श्रुष्टीति क्षिप्रनामसु अष्टीति ॥ (निरु०६.१२) (सभराः) समानधारणापोषणाः (असत्) अस्तु (नः) अस्मान् (नेदीयः) अतिशयेनान्तिकम् (इत्) एव (सृण्यः) याः क्षेत्रयोगान् गता यवादिजातयः (पक्वम्) (आ) (इयात्) प्राप्नुयात्। [अयं मन्त्रः शत०७.२.२.५ व्याख्यातः] ॥६८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यूयमिह साधनानि वितनुध्वं सीरा युगा युनक्त। कृते योनौ बीजं वपत, गिरा च सभराः श्रुष्टिर्भवत, याः सृण्यः सन्ति ताभ्यो यन्नेदीयोऽसत् पक्वं भवेत् तदिदेव न एयात् ॥६८ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यूयं विद्वद्भ्यः कृषीवलेभ्यश्च कृषियोगकर्मशिक्षां प्राप्यानेकानि साधनानि सम्पाद्य कृषिं योगं च कुरुत। तस्माद् यद् यत् पक्वं स्यात्, तत्तद् गृहीत्वोपभुङ्ग्ध्वं भोजयत वा ॥६८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! तुम्ही विद्वानांकडून योगाभ्यास व कृषितज्ज्ञाकडून शेतीकामाचे शिक्षण घ्या. अनेक साधनांनी युक्त होऊन शेती व योगाभ्यास करा. त्यामुळे जे अन्न प्राप्त होईल त्याचे सेवन करून इतरांनाही द्या.