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नमः॒ सु ते॑ निर्ऋते तिग्मतेजोऽय॒स्मयं॒ विचृ॑ता ब॒न्धमे॒तम्। य॒मेन॒ त्वं य॒म्या सं॑विदा॒नोत्त॒मे नाके॒ऽअधि॑ रोहयैनम् ॥६३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नमः। सु। ते॒। नि॒र्ऋ॒त॒ इति॑ निःऽऋते। ति॒ग्म॒ते॒ज॒ इति॑ तिग्मऽतेजः। अ॒य॒स्मय॑म्। वि। चृ॒त॒। ब॒न्धम्। ए॒तम्। य॒मेन॑। त्वम्। य॒म्या। सं॒वि॒दा॒नेति॑ सम्ऽविदा॒ना। उ॒त्त॒म इत्यु॑त्ऽत॒मे। नाके॑। अधि॑। रो॒ह॒य॒। ए॒न॒म् ॥६३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:63


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ये स्त्री कैसी हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (निर्ऋते) निरन्तर सत्य आचरणों से युक्त स्त्री ! जिस (ते) तेरे (तिग्मतेजः) तीव्र तेजोंवाले (अयस्मयम्) सुवर्णादि और (नमः) अन्नादि पदार्थ हैं सो (त्वम्) तू (एतम्) इस (बन्धम्) बाँधने के हेतु अज्ञान का (सुविचृत) अच्छे प्रकार छेदन कर (यमेन) न्यायाधीश तथा (यम्या) न्याय करने हारी स्त्री के साथ (संविदाना) सम्यक् बुद्धियुक्त होकर (एनम्) इस अपने पति को (उत्तमे) उत्तम (नाके) आनन्द भोगने में (अधिरोहय) आरूढ़ कर ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रियो ! तुम को चाहिये कि जैसे यह पृथिवी अग्नि तथा सुवर्ण अन्नादि पदार्थों से सम्बन्ध रखती है, वैसे तुम भी होओ। जैसे तुम्हारे पति न्यायाधीश होकर अपराधी और अपराधरहित मनुष्यों का सत्य-न्याय से विचार करके अपराधियों को दण्ड देते और अपराधरहितों का सत्कार करते हैं, तुम लोगों के लिये अत्यन्त आनन्द देते हैं, वैसे तुम लोग भी होओ ॥६३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेताः कथं भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

(नमः) अन्नादिकम् (सु) (ते) तव (निर्ऋते) नितरामृतं सत्यं यस्यां तत्सम्बुद्धौ (तिग्मतेजः) तीव्राणि तेजांसि यस्मात् तत् (अयस्मयम्) सुवर्णादिप्रकृतम्। अय इति हिरण्यनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.२) (वि) (चृत) विमुञ्च। द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा०६.३.१३५] इति दीर्घः (बन्धम्) बध्नाति येन तम् (एतम्) (यमेन) न्यायाधीशेन (त्वम्) यम्या न्यायकर्त्र्या (संविदाना) सम्यक्कृतप्रतिज्ञा (उत्तमे) (नाके) आनन्दे भोक्तव्ये सति (अधि) (रोहय) (एनम्)। [अयं मन्त्रः शत०७.२.१.१० व्याख्यातः] ॥६३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे निर्ऋते ! यस्यास्ते तिग्मतेजोऽयस्मयं नमोऽस्ति, सा त्वमेतं बन्धं सुविचृत। यमेन यम्या सह च संविदाना सत्येनं पतिमुत्तमे नाकेऽधिरोहय ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रियः ! यूयं यथेयं पृथिवी तेजः सुवर्णान्नादिसम्बन्धास्ति तथा भवत। यथा युष्माकं पतयो न्यायाधीशा भूत्वा सापराधानपराधिनां सत्यन्यायेन विवेचनं कृत्वा सापराधान् दण्डयन्ति, निरपराधिनः सत्कुर्वन्ति, युष्माननुत्तमानानन्दान् प्रददति, तथा यूयमपि भवत ॥६३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे स्त्रियांनो ! जशी ही पृथ्वी, अग्नी, सुवर्ण आणि अन्न इत्यादी पदार्थांनी युक्त असते तसे तुम्हीही व्हा. जसे तुमचे पती न्यायाधीश बनून अपराधी व निरपराधी व्यक्तींचा सत्य न्यायाने विचार करतात आणि गुन्हेगारांना शिक्षा व गुन्हेगार नसणाऱ्या व्यक्तींचा खरा न्याय करतात व तुम्हाला अत्यंत आनंदी करतात तसे तुम्हीही बना.