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असु॑न्वन्त॒मय॑जमानमिच्छ स्ते॒नस्ये॒त्यामन्वि॑हि॒ तस्क॑रस्य। अ॒न्यम॒स्मदि॑च्छ॒ सा त॑ऽइ॒त्या नमो॑ देवि निर्ऋते॒ तुभ्य॑मस्तु ॥६२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

असु॑न्वन्तम्। अय॑जमानम्। इ॒च्छ॒। स्ते॒नस्य॑। इ॒त्याम्। अनु॑। इ॒हि॒। तस्क॑रस्य। अ॒न्यम्। अ॒स्मत्। इ॒च्छ॒। सा। ते॒। इ॒त्या। नमः॑। दे॒वि॒। नि॒र्ऋ॒त॒ इति॑ निःऽऋते। तुभ्य॑म्। अ॒स्तु॒ ॥६२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:62


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्री लोग कैसे पतियों की इच्छा न करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (निर्ऋते) पृथिवी के तुल्य वर्त्तमान (देवि) विदुषी स्त्री ! तू (अस्मत्) हम से भिन्न (स्तेनस्य) अप्रसिद्ध चोर और (तस्करस्य) प्रसिद्ध चोर के सम्बन्धी को छोड़ के (अन्यम्) भिन्न को (इच्छ) इच्छा कर और (असुन्वन्तम्) अभिषव आदि क्रियाओं के अनुष्ठान से रहित (अयजमानम्) दानधर्म से रहित पुरुष की (इच्छ) इच्छा मत कर और तू जिस (इत्याम्) प्राप्त होने योग्य क्रिया को (अन्विहि) ढूँढे (सा) वह (इत्या) क्रिया (ते) तेरी हो तथा उस (तुभ्यम्) तेरे लिये (नमः) अन्न वा सत्कार (अस्तु) होवे ॥६२ ॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रियो ! तुम लोगों को चाहिये कि पुरुषार्थरहित चोरों के सम्बन्धी पुरुषों को अपने पति करने की इच्छा न करो, आप्त पुरुषों की नीति के तुल्य नीतिवाले पुरुषों को ग्रहण करो। जैसे पृथिवी अनेक उत्तम फलों के दान से मनुष्यों को संयुक्त करती है, वैसी होओ। ऐसे गुणोंवाली तुम को हम लोग नमस्कार करते हैं। जैसे हम लोग आलसी और चोरों के साथ न वर्त्तें, वैसे तुम लोग भी मत वर्त्तो ॥६२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्रियः कीदृशान् पतीन् नेच्छेयुरित्याह ॥

अन्वय:

(असुन्वन्तम्) अभिषवादिक्रियानुष्ठानरहितम् (अयजमानम्) अदातारम् (इच्छ) (स्तेनस्य) अप्रसिद्धचोरस्य (इत्याम्) एतुमर्हां क्रियाम् (अनु) (इहि) गच्छ (तस्करस्य) प्रसिद्धचोरस्य (अन्यम्) भिन्नम् (अस्मत्) (इच्छ) (सा) (ते) तव (इत्या) एतुमर्हा क्रिया (नमः) अन्नम् (देवि) विदुषि (निर्ऋते) नित्ये सत्याचारे पृथिवीवद्वर्त्तमाने (तुभ्यम्) (अस्तु) भवतु। [अयं मन्त्रः शत०७.२.१.९ व्याख्यातः] ॥६२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे निर्ऋते देवि ! त्वमस्मत्स्तेनस्य तस्करस्य सम्बन्धिनं विहायान्यमिच्छासुन्वन्तमयजमानं मेच्छ। यामित्यामन्विहि सेत्या तेऽस्तु, नमश्च तस्यै तुभ्यमस्तु ॥६२ ॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रियः ! यूयमपुरुषार्थिनः स्तेनसम्बन्धिनः पुरुषान् पतीन् मेच्छत, आप्तनीतीन् गृह्णीत। यथा पृथिव्यनेकोत्तमफलप्रदानेन जनान् रञ्जयति, तथा भवत। एवंभूताभ्यो युष्मभ्यं वयं नमः कुर्मः। यथा वयमलसेभ्यः स्तेनेभ्यश्च पृथग् वर्त्तेमहि, तथा यूयमपि वर्त्तध्वम् ॥६२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे स्त्रियांनो ! पुरुषार्थहीन चोर पुरुषांच्या नातेवाइकांना आपले पती बनवू नका. आप्त पुरुषाच्या नीतीनुसार नीतिमान पुरुषांचा स्वीकार करा. जशी पृथ्वी अनेक उत्तम फळांचे माणसांना दान करते तसे तुम्ही बना. अशा गुणवती स्त्रियांना आम्ही वंदन करतो. जसे आम्ही आळशी चोर लोकांशी संबंध ठेवत नाही, तसे तुम्ही आळशी चोर लोकांशी संबंध ठेवू नका.