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अक्र॑न्दद॒ग्नि स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद् वी॒रुधः॑ सम॒ञ्जन्। स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो वि हीमि॒द्धोऽअख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना॑ भात्य॒न्तः ॥६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अक्र॑न्दत्। अ॒ग्निः। स्त॒नय॑न्नि॒वेति॑ स्त॒नय॑न्ऽइव। द्यौः। क्षामा॑। रेरि॑हत्। वी॒रुधः॑। सम॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। स॒द्यः। ज॒ज्ञा॒नः। वि। हि। ई॒म्। इ॒द्धः। अख्य॑त्। आ। रोद॑सीऽइति॒ रोद॑सी। भा॒नुना॑। भा॒ति॒। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:6


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो सभापति (सद्यः) एक दिन में (जज्ञानः) प्रसिद्ध हुआ (द्यौः) सूर्यप्रकाश रूप (अग्निः) विद्युत् अग्नि के समान (स्तनयन्निव) शब्द करता हुआ शत्रुओं को (अक्रन्दत्) प्राप्त होता है, जैसे (क्षामा) पृथिवी (वीरुधः) वृक्षों को फल-फूलों से युक्त करती है, वैसे प्रजाओं के लिये सुखों को (रेरिहत्) अच्छे-बुरे कर्मों का शीघ्र फल देता है, जैसे सूर्य (इद्धः) प्रदीप्त और (समञ्जन्) सम्यक् पदार्थों को प्रकाशित करता हुआ (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (व्यख्यत्) प्रसिद्ध करता और (भानुना) अपनी दीप्ति के साथ (अन्तः) सब लोकों के बीच (आभाति) प्रकाशित होता है, वैसे जो सभापति शुभ गुण-कर्मों से प्रकाशित हो, उसको तुम लोग राजकार्य्यों में संयुक्त करो ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य सब लोकों के बीच में स्थित हुआ सबको प्रकाशित और आकर्षण करता है, और जैसे पृथिवी बहुत फलों को देती है, वैसे ही मनुष्य को राज्य के कार्यों में अच्छे प्रकार से उपयुक्त करो ॥६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अक्रन्दत्) प्राप्नोति (अग्निः) विद्युत् (स्तनयन्निव) यथा दिव्यं शब्दं कुर्वन् (द्यौः) सूर्य्यप्रकाशः (क्षामा) पृथिवी। क्षमेति पृथिवीनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१) अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा०६.३.१३७] इत्युपधादीर्घः (रेरिहत्) भृशं फलानि ददाति (वीरुधः) वृक्षान् (समञ्जन्) सम्यक् प्रकाशयन् (सद्यः) समानेऽह्नि (जज्ञानः) प्रादुर्भूतः सन् (वि) (हि) खलु (ईम्) सर्वतः (इद्धः) प्रदीप्तः (अख्यत्) प्रकाशयति (आ) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (भानुना) स्वदीप्त्या (भाति) प्रकाशते (अन्तः) मध्ये वर्त्तमानः सन्। [अयं मन्त्रः शत०६.७.३.१-२ व्याख्यातः] ॥६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यः सभेशः सद्यो जज्ञानो द्यौरग्निः स्तनयन्निवारीनाक्रन्दद्, यथा क्षामा वीरुधस्तथा प्रजाभ्यः सुखानि रेरिहत्, यथा सवितेद्धः समञ्जन् रोदसी व्यख्यद् भानुनाऽन्तराभाति, तथा यः शुभगुणकर्मस्वभावैः प्रकाशते, तं हि राजकर्मसु प्रयुङ्ध्वम् ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! यथा सूर्यः सर्वलोकमध्यस्थः सर्वान् प्रकाश्याकर्षति, यथा पृथिवी बहुफलदा वर्त्तते, तथाभूतः पुरुषः राज्यकार्येषु सम्यगुपयोक्तव्यः ॥६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! जसा सूर्य सर्व ग्रहगोलांमध्ये स्थित राहून सर्वांना प्रकाशित व आकर्षित करतो व जशी पृथ्वी पुष्कळ फळे देते, तसेच राजालाही राज्याच्या कार्यामध्ये उद्युक्त करा.