वांछित मन्त्र चुनें

इन्द्रं॒ विश्वा॑ऽअवीवृधन्त्समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिरः॑। र॒थीत॑मꣳ र॒थीनां॒ वाजा॑ना॒ सत्प॑तिं॒ पति॑म् ॥५६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म्। विश्वाः॑। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। स॒मु॒द्रव्य॑चस॒मिति॑ समु॒द्रऽव्य॑चसम्। गिरः॑। र॒थीत॑मम्। र॒थित॑म॒मिति॑ र॒थिऽत॑मम्। र॒थीना॑म्। र॒थिना॒मिति॑ र॒थिना॑म्। वाजा॑नाम्। सत्प॑ति॒मिति॒ सत्ऽपति॑म्। पति॑म् ॥५६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:56


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कुमार और कुमारियों को इस प्रकार करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रीपुरुषो ! जैसे (विश्वाः) सब (गिरः) वेदविद्या से संस्कार की हुई वाणी (समुद्रव्यचसम्) समुद्र की व्याप्ति जिसमें हो उन (वाजानाम्) संग्रामों और (रथीनाम्) प्रशंसित रथोंवाले वीर पुरुषों में (रथीतमम्) अत्यन्त प्रशंसित रथवाले (सत्पतिम्) सत्य, ईश्वर, वेद, धर्म वा श्रेष्ठ पुरुषों के रक्षक (पतिम्) सब ऐश्वर्य के स्वामी को (अवीवृधन्) बढ़ावें और (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्य को बढ़ावें, वैसे सब प्राणियों को बढ़ाओ ॥५६ ॥
भावार्थभाषाः - जो कुमार और कुमारी दीर्घ ब्रह्मचर्य सेवन से साङ्गोपाङ्ग वेदों को पढ़ और अपनी-अपनी प्रसन्नता से स्वयंवर विवाह करके ऐश्वर्य के लिये प्रयत्न करें, धर्मयुक्त व्यवहार से व्यभिचार को छोड़ के सुन्दर सन्तानों को उत्पन्न करके परोपकार करने में प्रयत्न करें, वे इस संसार और परलोक में सुख भोगें, और इनसे विरुद्ध जनों को सुख नहीं हो सकता ॥५६ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कुमारकुमारिभिरित्थं कर्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यम् (विश्वाः) अखिलाः (अवीवृधन्) वर्धयेयुः (समुद्रव्यचसम्) समुद्रस्य व्यचसो व्याप्तय इव यस्मिंस्तम् (गिरः) वेदविद्यासंस्कृता वाचः (रथीतमम्) अतिशयेन प्रशस्तरथयुक्तम् (रथीनाम्) प्रशस्तानां वीराणाम्, अत्र छन्दसीवनिपौ [अष्टा०वा०५.३.१०९] इतीकारः (वाजानाम्) संग्रामाणां मध्ये (सत्पतिम्) सत ईश्वरस्य वेदस्य धर्मस्य जनस्य वा पालकम् (पतिम्) अखिलैश्वर्य्यस्वामिनम्। [अयं मन्त्रः शत०८.७.३.७ व्याख्यातः] ॥५६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रीपुरुषाः ! यूयं यथा विश्वा गिरः समुद्रव्यचसं वाजानां रथीनां मध्ये रथीतमं सत्पतिं पतिमवीवृधँस्तथा सर्वान् वर्धयत ॥५६ ॥
भावार्थभाषाः - ये कुमारा याश्च कुमार्य्यो दीर्घेण ब्रह्मचर्य्येण साङ्गोपाङ्गान् वेदानधीत्य स्वप्रसन्नतया स्वयंवरं विवाहं कृत्वैश्वर्य्याय प्रयतेरन्। धर्म्येण व्यवहारेणाव्यभिचारतया सुसन्तानानुत्पाद्य परोपकारे प्रवर्त्तेरँस्त इहामुत्र सुखमश्नुवीरन्, न चेतरेऽविद्वांसः ॥५६ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - युवक व युवती यांनी दीर्घ ब्रह्मचर्य सेवन करून वेदांचे सांगोपांग अध्ययन करून प्रसन्नतेने स्वयंवर विवाह करावा व ऐश्वर्यासाठी प्रयत्न करावा. धर्मयुक्त व्यवहार करावा व व्यभिचार करू नये. उत्तम संतानांना जन्म द्यावा, तसेच परोपकारी बनण्याचा प्रयत्न करावा आणि इहलोक व परलोकांचे सुख भोगावे. याविरुद्ध वागणाऱ्या लोकांना हे सुख मिळू शकत नाही.