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विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा गा॑य॒त्रं छन्द॒ऽआरो॑ह पृथि॒वीमनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽस्यभिमाति॒हा त्रैष्टु॑भं॒ छन्द॒ऽआरो॑हा॒न्तरि॑क्ष॒मनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽस्यरातीय॒तो ह॒न्ता जाग॑तं॒ छन्द॒ऽआरो॑ह॒ दिव॒मनु॒ विक्र॑मस्व॒ विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि शत्रूय॒तो ह॒न्तानु॑ष्टुभं॒ छन्द॒ऽआरो॑ह॒ दिशोऽनु॒ विक्र॑मस्व ॥५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒हेति॑ सपत्न॒ऽहा। गा॒य॒त्रम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। अ॒भि॒मा॒ति॒हेत्य॑भिमाति॒ऽहा। त्रैष्टु॑भम्। त्रैस्तु॑भ॒मिति॒ त्रैऽस्तु॑भम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। अ॒रा॒ती॒य॒तः। अ॒रा॒ति॒य॒त इत्य॑रातिऽय॒तः। ह॒न्ता। जाग॑तम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। दिव॑म्। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒। विष्णोः॑। क्रमः॑। अ॒सि॒। श॒त्रू॒य॒तः। श॒त्रु॒य॒त इति॑ शत्रुऽय॒तः। ह॒न्ता। आनु॑ष्टुभम्। आनु॑स्तुभ॒मित्यानु॑ऽ स्तुभम्। छन्दः॑। आ। रो॒ह॒। दिशः॑। अनु॑। वि। क्र॒म॒स्व॒ ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी अगले मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् पुरुष ! जिससे आप (विष्णोः) व्यापक जगदीश्वर के (क्रमः) व्यवहार से शोधक और (सपत्नहा) शत्रुओं के मारनेहारे (असि) हो, इससे (गायत्रम्) गायत्री मन्त्र से निकले (छन्दः) शुद्ध अर्थ पर (आरोह) आरूढ़ हूजिये (पृथिवीम्) पृथिव्यादि पदार्थों से (अनुविक्रमस्व) अपने अनुकूल व्यवहार साधिये तथा जिस कारण आप (विष्णोः) व्यापक कारण के (क्रमः) कार्य्यरूप (अभिमातिहा) अभिमानियों को मारनेहारे (असि) हैं, इससे आप (त्रैष्टुभम्) तीन प्रकार के सुखों से संयुक्त (छन्दः) बलदायक वेदार्थ को (आरोह) ग्रहण और (अन्तरिक्षम्) आकाश को (अनुविक्रमस्व) अनुकूल व्यवहार में युक्त कीजिये जिससे आप (विष्णोः) व्यापनशील बिजुली रूप अग्नि के (क्रमः) जाननेहारे (अरातीयतः) विद्या आदि दान के विरोधी पुरुष के (हन्ता) नाश करनेहारे (असि) हैं, इससे आप (जागतम्) जगत् को जानने का हेतु (छन्दः) सृष्टिविद्या को बलयुक्त करनेहारे विज्ञान को (आरोह) प्राप्त हूजिये और (दिवम्) सूर्य आदि अग्नि को (अनुविक्रमस्व) अनुक्रम से उपयुक्त कीजिये, जो आप (विष्णोः) हिरण्यगर्भ वायु के (क्रमः) ज्ञापक तथा (शत्रूयतः) अपने को शत्रु का आचरण करनेवाले पुरुषों के (हन्ता) मारनेवाले (असि) हैं, सो आप (आनुष्टुभम्) अनुकूलता के साथ सुख सम्बन्ध के हेतु (छन्दः) आनन्दकारक वेदभाग को (आरोह) उपयुक्त कीजिये और (दिशः) पूर्व आदि दिशाओं के (अनुविक्रमस्व) अनुकूल प्रयत्न कीजिये ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि वेदविद्या से भूगर्भ विद्याओं का निश्चय तथा पराक्रम से उनकी उन्नति करके रोग और शत्रुओं का नाश करें ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजधर्ममाह ॥

अन्वय:

(विष्णोः) व्यापकस्य जगदीश्वरस्य (क्रमः) व्यवहारः (असि) (सपत्नहा) यः सपत्नानरीन् हन्ति सः (गायत्रम्) गायत्रीनिष्पन्नमर्थम् (छन्दः) स्वच्छम् (आ) (रोह) आरूढो भव (पृथिवीम्) पृथिव्यादिकम् (अनु) (वि) (क्रमस्व) व्यवहर (विष्णोः) व्यापकस्य कारणस्य (क्रमः) अवस्थान्तरम् (असि) (अभिमातिहा) योऽभिमातीनभिमानयुक्तान् हन्ति (त्रैष्टुभम्) त्रिभिः सुखैः सम्बद्धम् (छन्दः) बलप्रदम् (आ) (रोह) (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (अनु) (वि) (क्रमस्व) (विष्णोः) व्याप्तुं शीलस्य विद्युद्रूपाग्नेः (क्रमः) (असि) (अरातीयतः) विद्यादिदानं कर्त्तुमनिच्छतः (हन्ता) नाशकः (जागतम्) जगज्जानाति येन तत् (छन्दः) सृष्टिविद्याबलकरम् (आ) (रोह) (दिवम्) सूर्याद्यग्निम् (अनु) (वि) (क्रमस्व) (विष्णोः) हिरण्यगर्भस्य वायोः (क्रमः) (असि) (शत्रूयतः) आत्मनः शत्रुमाचरतः (हन्ता) (आनुष्टुभम्) अनुकूलतया स्तोभते सुखं बध्नाति येन तत् (छन्दः) आनन्दकरम् (आ) (रोह) (दिशः) पूर्वादीन् (अनु) (वि) (क्रमस्व) प्रयतस्व। [अयं मन्त्रः शत०६.७.२.१३-१६ व्याख्यातः] ॥५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यतस्त्वं विष्णोः क्रमः सपत्नहाऽसि, तस्माद् गायत्रं छन्द आरोह पृथिवीमनुविक्रमस्व। यतस्त्वं विष्णोः क्रमोऽभिमातिहासि, तस्मात् त्वं त्रैष्टुभं छन्द आरोहान्तरिक्षमनुविक्रमस्व। यतस्त्वं विष्णोः क्रमोऽरातीयतो हन्ताऽसि, तस्माज्जागतं छन्द आरोह दिवमनुविक्रमस्व। यस्त्वं विष्णोः क्रमः शत्रूयतो हन्ताऽसि, स त्वमानुष्टुभं छन्द आरोह, दिशोऽनुविक्रमस्व ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्वेदविद्यया भूगर्भादिविद्या निश्चित्य पराक्रमेणोन्नीय रोगाः शत्रवश्च निहन्तव्याः ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी वेदविद्येने भूगर्भविद्यांचे निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त करावे व पराक्रमाने त्यांची वाढ करावी आणि रोगांचा व शत्रूंचा नाश करावा.