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अ॒यꣳसोऽअ॒ग्निर्यस्मि॒न्त्सोम॒मिन्द्रः॑ सु॒तं द॒धे ज॒ठरे॑ वावशा॒नः। स॒ह॒स्रियं॒ वाज॒मत्यं॒ न सप्ति॑ꣳ सस॒वान्त्सन्त्स्तू॑यसे जातवेदः ॥४७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। सः। अ॒ग्निः। यस्मि॑न्। सोम॑म्। इन्द्रः॑। सु॒तम्। द॒धे॒। ज॒ठरे॑। वा॒व॒शा॒नः। स॒ह॒स्रिय॑म्। वाज॑म्। अत्य॑म्। न। सप्ति॑म्। स॒स॒वानिति॑ सस॒ऽवान्। सन्। स्तू॒य॒से॒। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः ॥४७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:47


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को उत्तम आचरणों के अनुसार वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (जातवेदः) विज्ञान को प्राप्त हुए विद्वन् ! जैसे (ससवान्) दान देते (सन्) हुए आप (स्तूयसे) प्रशंसा के योग्य हो, (अयम्) यह (अग्निः) अग्नि और (इन्द्रः) सूर्य्य (यस्मिन्) जिसमें (सोमम्) सब ओषधियों के रस को धारण करता है, जिस (सुतम्) सिद्ध हुए पदार्थ को (जठरे) पेट में मैं (दधे) धारण करता हूँ, (सः) वह मैं (वावशानः) शीघ्र कामना करता हुआ (सहस्रियम्) साथ वर्त्तमान अपनी स्त्री को धारण करता हूँ, आप के साथ (वाजम्) अन्न आदि पदार्थों को (अत्यम्) व्याप्त होने योग्य के (न) समान (सप्तिम्) घोड़े को (दधे) धारण करता हूँ, वैसा ही तू भी हो ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार और उपमालङ्कार हैं। जैसे बिजुली और सूर्य, सब रसों का ग्रहण कर जगत् को रसयुक्त करते हैं वा जैसे पति के साथ स्त्री और स्त्री के साथ पति आनन्द भोगते हैं, वैसे मैं इस सब को धारण करता हूँ। जैसे श्रेष्ठ गुणों से युक्त आप प्रशंसा के योग्य हो, वैसें मैं भी प्रशंसा के योग्य होऊँ ॥४७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैरुत्तमाचरणानुकरणं कार्य्यमित्याह ॥

अन्वय:

(अयम्) (सः) (अग्निः) (यस्मिन्) (सोमम्) सर्वौषध्यादिरसम् (इन्द्रः) सूर्य्यः (सुतम्) निष्पन्नम् (दधे) धरे (जठरे) उदरे। जठरमुदरं भवति जग्धमस्मिन् ध्रियते धीयते वा ॥ (निरु०४.७) (वावशानः) भृशं कामयमानः (सहस्रियम्) सहप्राप्ताम् भार्य्याम् (वाजम्) अन्नादिकम् (अत्यम्) अतितुं व्याप्तुं योग्यम् (न) इव (सप्तिम्) अश्वम् (ससवान्) ददत् (सन्) (स्तूयसे) प्रशस्यसे (जातवेदः) उत्पन्नविज्ञान। [अयं मन्त्रः शत०७.१.१.२२ व्याख्यातः] ॥४७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जातवेदः ! यथा ससवान्सँस्त्वं स्तूयसेऽयमग्निरिन्द्रश्च यस्मिन् सोमं दधाति, यं सुतं जठरेऽहं दधे, सोऽहं वावशानः सन् सहस्रियं दधे। त्वया सह वाजमत्यं न सप्तिं दधे, तादृशस्त्वं भव ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा विद्युत्सूर्यौ सर्वान् रसान् गृहीत्वा जगद्रसयतो यथा पत्या सह स्त्री स्त्रिया सह पतिश्चानन्दं भुङ्क्ते, तथाऽहमेतद्दधे। यथा सद्गुणैर्युक्तस्त्वं स्तूयसे, तथाऽहमपि प्रशंसितो भवेयम् ॥४७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार व उपमालंकार आहेत. जसे विद्युत व सूर्य सर्व रसांचे ग्रहण करून जगाला रसयुक्त बनवितात किंवा जसे पती-पत्नी एकमेकांसोबत आनंद उपभोगतात तसे मी या सर्व गोष्टींचा अंगीकार करतो. जसे श्रेष्ठ गुणांनी युक्त विद्वान प्रशंसा करण्यायोग्य असतात तसे मीही (जिज्ञासू माणसाने) प्रशंसायोग्य बनावे.