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सं॒ज्ञान॑मसि काम॒ध॑रणं॒ मयि॑ ते काम॒धर॑णं भूयात्। अ॒ग्नेर्भस्मा॑स्य॒ग्नेः पुरी॑षमसि॒ चित॑ स्थ परि॒चित॑ऽऊर्ध्व॒चितः॑ श्रयध्वम् ॥४६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सं॒ज्ञान॒मिति॑ स॒म्ऽज्ञान॑म्। अ॒सि॒। का॒म॒धर॑ण॒मिति॑ काम॒ऽधर॑णम्। मयि॑। ते॒। का॒म॒धर॑ण॒मिति॑ काम॒ऽधर॑णम्। भू॒या॒त्। अ॒ग्नेः। भस्म॑। अ॒सि॒। अ॒ग्नेः। पुरी॑षम्। अ॒सि॒। चितः॑। स्थ॒। प॒रि॒चित॒ इति॑ परि॒ऽचितः॑। ऊ॒र्ध्व॒चित॒ इत्यू॑र्ध्व॒ऽचितः॑। श्र॒य॒ध्व॒म् ॥४६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:46


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पढ़ने-पढ़ानेवाले क्या करके सुखी हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप जिस (संज्ञानम्) पूरे विज्ञान को प्राप्त (असि) हुए हो, जो आप (अग्नेः) अग्नि से हुई (भस्म) राख के समान दोषों के भस्मकर्त्ता (असि) हो, (अग्नेः) बिजुली के जिस (पुरीषम्) पूर्ण बल को प्राप्त हुए (असि) हो, उस विज्ञान, भस्म और बल को मेरे लिये भी दीजिये। जिस (ते) आप का जो (कामधरणम्) सङ्कल्पों का आधार अन्तःकरण है, वह (कामधरणम्) कामना का आधार (मयि) मुझ में (भूयात्) होवे। जैसे तुम लोग विद्या आदि शुभगुणों से (चितः) इकट्ठे हुए (परिचितः) सब पदार्थों को सब ओर से इकट्ठे करने हारे (ऊर्ध्वचितः) उत्कृष्ट गुणों के संचयकर्त्ता पुरुषार्थ को आप (श्रयध्वम्) सेवन करो, वैसे हम लोग भी करें ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - जिज्ञासु मनुष्यों को चाहिये कि सदैव विद्वानों से विद्या की इच्छा कर प्रश्न किया करें कि जितना तुम लोगों में पदार्थों का विज्ञान है, उतना सब तुम लोग हम लोगों में धारण करो और जितना हस्तक्रिया आप जानते हैं, उतनी सब हम लोगों को सिखाइये, जैसे हम लोग आपके आश्रित हैं, वैसे ही आप भी हमारे आश्रय हूजिये ॥४६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अध्येत्रध्यापकाः किं कृत्वा सुखिनः स्युरित्याह ॥

अन्वय:

(संज्ञानम्) सम्यग्विज्ञानम् (असि) (कामधरणम्) संकल्पानामाधरणम् (मयि) (ते) तव (कामधरणम्) (भूयात्) (अग्नेः) पावकस्य (भस्म) दग्धदोषः (असि) (अग्नेः) विद्युतः (पुरीषम्) पूर्णं बलम् (असि) (चितः) सञ्चिताः (स्थ) भवत (परिचितः) परितः सर्वतः सञ्चेतारः (ऊर्ध्वचितः) ऊर्ध्वं सञ्चिन्वन्तः (श्रयध्वम्) सेवध्वम्। [अयं मन्त्रः शत०७.१.१.८-१४ व्याख्यातः] ॥४६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! त्वं यत्संज्ञां प्राप्तोऽसि, यत् त्वमग्नेर्भस्मास्याग्नेर्यत्पुरीषमाप्तोऽसि तन्मां प्रापय। यस्य ते तव यत्कामधरणमस्ति तत्कामधरणं मयि भूयाद्, यथा यूयं विद्यादिशुभगुणैश्चितः परिचित ऊर्ध्वचितः स्थ पुरुषार्थं चाश्रयध्वम्, तथा वयमपि भवेम ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - जिज्ञासवः सदा विदुषां सकाशाद्विद्याः प्रार्थ्य पृच्छेयुर्यावद् युष्मासु पदार्थविज्ञानमस्ति, तावत् सर्वमस्मासु धत्त। यावतीर्हस्तक्रिया भवन्तो जानन्ति, तावतीरस्मान् शिक्षत, यथा वयं भवदाश्रिता भवेम, तथैव भवन्तोऽप्यस्माकमाश्रयाः सन्तु ॥४६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जिज्ञासू लोकांनी विद्वानांकडून विद्या शिकण्याची इच्छा बाळगावी व त्यांना प्रश्न विचारावेत आणि विनंती करावी, की तुम्हाला पदार्थांचे जेवढे ज्ञान आहे तेवढे आम्हाला द्या व जेवढी कला तुम्ही जाणता तेवढी आम्हाला शिकवा.