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पुन॑रू॒र्जा निव॑र्त्तस्व॒ पुन॑रग्नऽइ॒षायु॑षा। पुन॑र्नः पा॒ह्यꣳह॑सः ॥४० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पुनः॑। ऊ॒र्जा। नि। व॒र्त्त॒स्व॒। पुनः॑। अ॒ग्ने॒। इ॒षा। आयु॑षा। पुनः॑। नः॒। पा॒हि॒। अꣳह॑सः ॥४० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:40


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पुत्रों को माता-पिता के विषय में परस्पर योग्य वर्त्ताव करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) तेजस्विन् माता-पिता ! आप (इषायुषा) अन्न और जीवन के साथ (नः) हम लोगों को बढ़ाइये (पुनः) बार-बार (अंहसः) दुष्ट आचरणों से (पाहि) रक्षा कीजिये। हे पुत्र ! तू (ऊर्जा) पराक्रम के साथ पापों से (निवर्त्तस्व) अलग हूजिये और (पुनः) फिर हम लोगों को भी पापों से पृथक् रखिये ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् माता-पिता अपने सन्तानों को विद्या और अच्छी शिक्षा से दुष्टाचारों से पृथक् रक्खें, वैसे ही सन्तानों को भी चाहिये कि इन माता-पिताओं को बुरे व्यवहार से निरन्तर बचावें, क्योंकि इस प्रकार किये विना सब मनुष्य धर्मात्मा नहीं हो सकते ॥४० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पुत्रैर्जनकजननीभ्यां परस्परं वर्त्तमानं योग्यं कार्य्यमित्याह ॥

अन्वय:

(पुनः) (ऊर्जा) पराक्रमेण (नि) (वर्त्तस्व) (पुनः) (अग्ने) (इषा) अन्नेन (आयुषा) जीवनेन (पुनः) (नः) अस्मभ्यम् (पाहि) (अंहसः) पापाचरणात्। [अयं मन्त्रः शत०६.८.२.६ व्याख्यातः] ॥४० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने मातः पितश्च ! त्वमिषायुषा सह नो वर्धय पुनरंहसः पाहि। हे पुत्र ! त्वमूर्जा सह निवर्त्तस्व। पुनर्नोऽस्मानंहसः पाहि ॥४० ॥
भावार्थभाषाः - यथा विद्वांसो मातापितरः सुसन्तानान् विद्यया सुशिक्षया दुष्टाचारात् पृथग् रक्षेयुस्तथाऽपत्यान्यप्येतान् पापाचरणात् सततं पृथग् रक्षेयुः। नैवं विना सर्वे धर्मचारिणो भवितुं शक्नुवन्ति ॥४० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे विद्वान माता-पिता आपल्या संतानांना विद्या व चांगले शिक्षण देऊन दुष्ट आचरणापासून दूर ठेवतात तसे संतानांनीही माता व पिता यांना वाईट व्यवहारापासून परावृत्त करावे. कारण याशिवाय सर्व माणसे धर्मात्मा बनत नाहीत.