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अग्ने॒ तव॒ श्रवो॒ वयो॒ महि॑ भ्राजन्तेऽअ॒र्चयो॑ विभावसो। बृह॑द्भानो॒ शव॑सा॒ वाज॑मु॒क्थ्यं᳕ दधा॑सि दा॒शुषे॑ कवे ॥१०६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। तव॑। श्रवः॑। वयः॑। महि॑। भ्रा॒ज॒न्ते॒। अ॒र्चयः॑। वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो। बृह॑द्भानो॒ इति॒ बृह॑त्ऽभानो। शव॑सा। वाज॑म्। उ॒क्थ्य᳕म्। दधा॑सि। दा॒शुषे॑। क॒वे॒ ॥१०६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:106


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, यह विषये अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (बृहद्भानो) अग्नि के समान अत्यन्त विद्याप्रकाश से युक्त (विभावसो) विविध प्रकार की कान्ति में वसने हारे (कवे) अत्यन्त बुद्धिमान् (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वान् पुरुष ! जिससे आप (शवसा) बल के साथ (दाशुषे) दान के योग्य विद्यार्थी के लिये (उक्थ्यम्) कहने योग्य (वाजम्) विज्ञान को (दधासि) धारण करते हो, इसमें (तव) आप का अग्नि के समान (महि) अति पूजने योग्य (श्रवः) सुनने योग्य शब्द (वयः) यौवन और (अर्चयः) दीप्ति (भ्राजन्ते) प्रकाशित होती हैं ॥१०६ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अग्नि के समान गुणी और आप्तों के तुल्य श्रेष्ठ कीर्त्तियों से प्रकाशित होते हैं, वे परोपकार के लिये दूसरों को विद्या, विनय और धर्म का निरन्तर उपदेश करें ॥१०६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः कथं भवितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(अग्ने) पावक इव वर्त्तमान विद्वन् (तव) (श्रवः) श्रवणम् (वयः) जीवनम् (महि) पूज्यं महत् (भ्राजन्ते) (अर्चयः) दीप्तयः (विभावसो) यो विविधायां भायां वसति तत्सम्बुद्धौ (बृहद्भानो) अग्निवद् बृहन्तो महान्तो भानवो विद्याप्रकाशा यस्य तत्सम्बुद्धौ (शवसा) बलेन (वाजम्) विज्ञानम् (उक्थ्यम्) वक्तुं योग्यम् (दधासि) (दाशुषे) दातुं योग्याय विद्यार्थिने (कवे) विक्रान्तप्रज्ञ। [अयं मन्त्रः शत०७.३.१.२९ व्याख्यातः] ॥१०६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे बृहद्भानो विभावसो कवेऽग्ने विद्वन् ! यतस्त्वं शवसा दाशुष उक्थ्यं वाजं दधासि, तस्मात् तवाग्नेरिव महि श्रवो वयोऽर्चयश्च भ्राजन्ते ॥१०६ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अग्निवद् गुणिन आप्तवत् सत्कीर्त्तयः प्रकाशन्ते, ते परोपकारायान्येभ्यो विद्याविनयधर्मान् सततमुपदिशेयुः ॥१०६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अग्नीसारखी तेजस्वी, आप्ताप्रमाणे श्रेष्ठ व कीर्तिमान असतात त्यांनी परोपकार करून इतरांना विद्या, विनय, धर्म यांचा निरंतर उपदेश करावा.