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इष॒मूर्ज॑म॒हमि॒तऽआद॑मृ॒तस्य॒ योनिं॑ महि॒षस्य॒ धारा॑म्। आ मा॒ गोषु॑ विश॒त्वा त॒नुषु॒ जहा॑मि से॒दिमनि॑रा॒ममी॑वाम् ॥१०५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इष॑म्। ऊर्ज॑म्। अ॒हम्। इ॒तः। आद॑म्। ऋ॒तस्य॑। योनि॑म्। म॒हि॒षस्य॑। धारा॑म्। आ। मा॒। गोषु॑। वि॒श॒तु॒। आ। त॒नूषु॑। जहा॑मि। से॒दिम्। अनि॑राम् अमी॑वाम् ॥१०५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:105


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ठीक-ठीक आहार-विहार करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अहम्) मैं (इतः) इस पूर्वोक्त विद्युत्स्वरूप से (आदम्) भोगने योग्य (इषम्) अन्न (ऊर्जम्) पराक्रम (महिषस्य) बड़े (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) कारण (धाराम्) धारण करनेवाली वाणी को प्राप्त होऊँ, जैसे अन्न और पराक्रम (मा) मुझ को (आविशतु) प्राप्त हो, जिससे मेरे (गोषु) इन्द्रियों और (तनूषु) शरीर में प्रविष्ट हुई (सेदिम्) दुःख का हेतु (अनिराम्) जिसमें अन्न का भोजन भी न कर सकें, ऐसी (अमीवाम्) रोगों से उत्पन्न हुई पीड़ा को (आ, जहामि) छोड़ता हूँ, वैसे तुम लोग भी करो ॥१०५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि अग्नि का जो वीर्य्य आदि से युक्त स्वरूप है, उसको प्रदीप्त करने से रोगों का नाश करें। इन्द्रिय और शरीर को स्वस्थ रोगरहित करके कार्य्य-कारण की जाननेहारी विद्यायुक्त वाणी को प्राप्त होवें और युक्ति से आहार-विहार भी करें ॥१०५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ युक्ताहारविहारौ कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(इषम्) अन्नम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (अहम्) (इतः) अस्मात् पूर्वोक्तात् विद्युत्स्वरूपात् (आदम्) अत्तुं योग्यम् (ऋतस्य) सत्यस्य (योनिम्) कारणम् (महिषस्य) महतः (धाराम्) धारिकां वाचम् (आ) (मा) माम् (गोषु) इन्द्रियेषु (विशतु) प्रविशतु (आ) (तनूषु) शरीरेषु (जहामि) (सेदिम्) हिंसाम्। सदिमनि० ॥ (अष्टा०वा०३.२.१७१) इति वार्त्तिकेनास्य सिद्धिः (अनिराम्) अविद्यमाना इराऽन्नभुक्तिर्यस्यां ताम् (अमीवाम्) रोगोत्पन्नां पीडाम्। [अयं मन्त्रः शत०७.३.१.२३ व्याख्यातः] ॥१०५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽहमित आदमिषमूर्जं महिषस्यर्त्तस्य योनिं धारां प्राप्नुयाम्, यथेयमिडूर्क् मा मामाविशतु, येन मम गोषु तनूषु प्रविष्टां सेदिमनिराममीवां जहामि त्यजामि, तथा यूयमपि कुरुत ॥१०५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या अग्नेर्यच्छुक्रादियुक्तं स्वरूपं तेन रोगान् हन्युः। इन्द्रियाणि शरीराणि च स्वस्थान्यरोगाणि कृत्वा कार्य्यकारणज्ञापिकां विद्यावाचं प्राप्नुवन्तु, युक्त्याहारविहारौ च कुर्य्युः ॥१०५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी अग्नीचे प्रखर स्वरूप जाणून, अग्निशक्तीला प्रदीप्त करून रोगांचा नाश करावा. इंद्रिये व शरीर यांना स्वस्थ निरोगी करून कार्यकारण भाव जाणणारी विद्यायुक्त वाणी प्राप्त करावी व युक्तीने आहार-विहार करावा.