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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे गाय॒त्रेण॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत् पृ॑थि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वदाभ॑र॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत् ॥९ ॥

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पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व᳕ इति॑ प्रऽस॒वे᳕। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। गा॒य॒त्रेण॑। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। आ। भ॒र॒। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:9


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य भूमि आदि तत्त्वों से बिजुली का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् पुरुष ! मैं जिस (त्वा) आप को (देवस्य) सूर्य्य आदि सब जगत् के प्रकाश करने और (सवितुः) सबको ऐश्वर्यव्यवस्था के प्रति प्रेरित करनेवाले के (प्रसवे) निष्पन्न ऐश्वर्य में (अश्विनोः) प्राण और उदान के (बाहुभ्याम्) बल और आकर्षण से तथा (पूष्णः) पुष्टिकारक बिजुली के (हस्ताभ्याम्) धारण और आकर्षण (अङ्गिरस्वत्) अंगारों के समान (आददे) ग्रहण करता हूँ सो आप (गायत्रेण) गायत्री मन्त्र से निकले (छन्दसा) आनन्ददायक अर्थ के साथ (पृथिव्याः) पृथिवी के (सधस्थात्) एक स्थान से (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के तुल्य और (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् मन्त्र से निकले (छन्दसा) स्वतन्त्र अर्थ के साथ (अङ्गिरस्वत्) चिह्नों के सदृश (पुरीष्यम्) जल को उत्पन्न करने हारे (अग्निम्) बिजुली आदि तीन प्रकार के अग्नि को (आभर) धारण कीजिये ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर की सृष्टि के गुणों को जानने हारे विद्वान् की अच्छे प्रकार सेवा करके पृथिवी आदि पदार्थों में रहनेवाले अग्नि को स्वीकार करें ॥९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्या भूमितत्त्वादिभ्यो विद्युतं स्वीकुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

(देवस्य) सूर्यादिजगतः प्रदीपकस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) सर्वेषामैश्वर्य्यव्यवस्थां प्रति प्रेरकस्य (प्रसवे) निष्पन्नैश्वर्ये (अश्विनोः) प्राणोदानयोः (बाहुभ्याम्) बलाकर्षणाभ्याम् (पूष्णः) पुष्टिकर्त्र्या (हस्ताभ्याम्) धारणाकर्षणाभ्याम् (आ) (ददे) स्वीकरोमि (गायत्रेण) गायत्रीनिर्मितेनार्थेन (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरोभिरङ्गारैस्तुल्यम् (पृथिव्याः) (सधस्थात्) सहस्थानात् तलात् (अग्निम्) विद्युदादिस्वरूपम् (पुरीष्यम्) पुरीष उदके साधुम्। अत्र पॄधातोरौणादिक ईषन् किच्च। पुरीषमित्युदकनामसु पठितम् ॥ (निघ०१.१२) (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरोभिः प्राणैस्तुल्यम् (आ) (भर) धर (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुभा निर्मितेनार्थेन (छन्दसा) स्वच्छन्देन (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरोभिरङ्गैस्तुल्यम्। [अयं मन्त्रः शत०६.३.१.३८ व्याख्यातः] ॥९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! अहं यं त्वा देवस्य सवितुः प्रसवेऽअश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामङ्गिरस्वदाददे, स त्वं गायत्रेण छन्दसा पृथिव्याः सधस्थादङ्गिरस्वत् त्रैष्टुभेन छन्दसाऽङ्गिरस्वत् पुरीष्यमग्निमाभर ॥९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरसृष्टिगुणविदं विद्वांसं संसेव्य पृथिव्यादिस्थोऽग्निः स्वीकार्य्यः ॥९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी ईश्वरनिर्मित सृष्टीचे गुण जाणणाऱ्या विद्वानांची सेवा करावी व पृथ्वी इत्यादी पदार्थातील अग्नीचा उपयोग जाणावा.