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अन्न॑प॒तेऽन्न॑स्य नो देह्यनमी॒वस्य॑ शु॒ष्मिणः॑। प्रप्र॑ दा॒तारं॑ तारिष॒ऽऊर्जं॑ नो धेहि द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे ॥८३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अन्न॑पत॒ इत्यन्न॑ऽपते। अन्न॑स्य। नः॒। दे॒हि॒। अ॒न॒मी॒वस्य॑। शु॒ष्मिणः॑। प्र॒प्रेति॒ प्रऽप्र॑। दा॒तार॑म्। ता॒रि॒षः॒। ऊर्ज॑म्। नः॒। धे॒हि॒। द्वि॒पद॒ इति॑ द्वि॒ऽपदे॑। चतु॑ष्पदे। चतुः॑ऽपद॒ इति॒ चतुः॑ऽपदे ॥८३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:83


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यों को इस संसार में कैसे-कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अन्नपते) ओषधि अन्नों के पालन करने हारे यजमान वा पुरोहित ! आप (नः) हमारे लिये (अनमीवस्य) रोगों के नाश से सुख को बढ़ाने (शुष्मिणः) बहुत बलकारी (अन्नस्य) अन्न को (प्रप्रदेहि) अतिप्रकर्ष के साथ दीजिये और इस अन्न के (दातारम्) देने हारे को (तारिषः) तृप्त कर तथा (नः) हमारे (द्विपदे) दो पगवाले मनुष्यादि तथा (चतुष्पदे) चार पगवाले गौ आदि पशुओं के लिये (ऊर्जम्) पराक्रम को (धेहि) धारण कर ॥८३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सदैव बलकारी आरोग्य अन्न आप सेवें, और दूसरों को देवें। मनुष्य तथा पशुओं के सुख और बल बढ़ावें, जिससे ईश्वर की सृष्टि के क्रमाऽनुकूल आचरण से सब के सुखों की सदा उन्नति होवे ॥८३ ॥ इस अध्याय में गृहस्थ राजा के पुरोहित सभा और सेना के अध्यक्ष और प्रजा के मनुष्यों को करने योग्य कर्म आदि के वर्णन से इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः कथं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते

अन्वय:

(अन्नपते) अन्नानां पालक (अन्नस्य) (नः) अस्मभ्यम् (देहि) (अनमीवस्य) रोगरहितस्य सुखकरस्य (शुष्मिणः) बहु शुष्मं बलं भवति यस्मात् तस्य (प्रप्र) अतिप्रकृष्टतया (दातारम्) (तारिषः) संतर (ऊर्जम्) पराक्रमम् (नः) अस्माकम् (धेहि) (द्विपदे) द्वौ पादौ यस्य मनुष्यादेस्तस्मै (चतुष्पदे) चत्वारः पादा यस्य गवादेस्तस्मै। [अयं मन्त्रः शत०६.६.४.७ व्याख्यातः] ॥८३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अन्नपते यजमान पुरोहित वा ! त्वं नोऽनमीवस्य शुष्मिणोऽन्नस्य प्रप्रदेहि। अस्याऽन्नस्य दातारं तारिषः। नोऽस्माकं द्विपदे चतुष्पदे ऊर्जं धेहि ॥८३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सदैवारोग्यबलकारकमन्नं स्वैर्भोक्तव्यमन्येभ्यः प्रदातव्यं च। मनुष्याणां पशूनां च सुखबले संवर्धनीये, यत ईश्वरसृष्टिक्रमानुकूलाचरणेन सर्वेषां सुखोन्नतिः सदा वर्धेत ॥८३ ॥ अथ गृहस्थराजपुरोहितसभासेनाधीशप्रजाजनकर्तव्यकर्मादिवर्णनादेतदध्यायोक्तार्थस्य पूर्वाध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीत्यवगन्तव्यम् ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमत्परमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्य एकादशोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी सदैव बल व आरोग्य वाढविणारे अन्न खावे व इतरांनाही द्यावे. माणसे व पशू यांचे सुख वाढवावे. शक्ती वाढवावी. ईश्वराच्या सृष्टिक्रमानुसार वर्तन केल्याने सर्वांच्या सुखात सदैव वाढ होते.