अन्न॑प॒तेऽन्न॑स्य नो देह्यनमी॒वस्य॑ शु॒ष्मिणः॑। प्रप्र॑ दा॒तारं॑ तारिष॒ऽऊर्जं॑ नो धेहि द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे ॥८३ ॥
अन्न॑पत॒ इत्यन्न॑ऽपते। अन्न॑स्य। नः॒। दे॒हि॒। अ॒न॒मी॒वस्य॑। शु॒ष्मिणः॑। प्र॒प्रेति॒ प्रऽप्र॑। दा॒तार॑म्। ता॒रि॒षः॒। ऊर्ज॑म्। नः॒। धे॒हि॒। द्वि॒पद॒ इति॑ द्वि॒ऽपदे॑। चतु॑ष्पदे। चतुः॑ऽपद॒ इति॒ चतुः॑ऽपदे ॥८३ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब मनुष्यों को इस संसार में कैसे-कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्यैः कथं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते
(अन्नपते) अन्नानां पालक (अन्नस्य) (नः) अस्मभ्यम् (देहि) (अनमीवस्य) रोगरहितस्य सुखकरस्य (शुष्मिणः) बहु शुष्मं बलं भवति यस्मात् तस्य (प्रप्र) अतिप्रकृष्टतया (दातारम्) (तारिषः) संतर (ऊर्जम्) पराक्रमम् (नः) अस्माकम् (धेहि) (द्विपदे) द्वौ पादौ यस्य मनुष्यादेस्तस्मै (चतुष्पदे) चत्वारः पादा यस्य गवादेस्तस्मै। [अयं मन्त्रः शत०६.६.४.७ व्याख्यातः] ॥८३ ॥