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अह॑रह॒रप्र॑यावं॒ भर॒न्तोऽश्वा॑येव॒ तिष्ठ॑ते घा॒सम॑स्मै। रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा मद॒न्तोऽग्ने॒ मा ते॒ प्रति॑वेशा रिषाम ॥७५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अह॑रह॒रित्यहः॑ऽअहः। अप्र॑याव॒मित्यप्र॑ऽयावम्। भर॑न्तः। अश्वा॑ये॒वेत्यश्वा॑यऽइव। तिष्ठ॑ते। घा॒सम्। अ॒स्मै॒। रा॒यः। पोषे॑ण। सम्। इ॒षा। मद॑न्तः। अग्ने॑। मा। ते॒। प्रति॑वेशा॒ इति॒ प्रति॑ऽवेशाः। रि॒षा॒म॒ ॥७५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:75


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर गृहस्थ लोग आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् पुरुष ! (अहरहः) नित्यप्रति (तिष्ठते) वर्त्तमान (अश्वायेव) जैसे घोड़े के लिये घास आदि खाने का पदार्थ आगे धरते हैं, वैसे (अस्मै) इस गृहस्थ पुरुष के लिये (अप्रयावम्) अन्याय से पृथक् गृहाश्रम के योग्य (घासम्) भोगने योग्य पदार्थों को (भरन्तः) धारण करते हुए (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि तथा (इषा) अन्नादि से (संमदन्तः) सम्यक् आनन्द को प्राप्त हुए (प्रतिवेशाः) धर्म्मविषयक प्रवेश के निश्चित हम लोग (ते) तेरे ऐश्वर्य्य को (मा रिषाम) कभी नष्ट न करें ॥७५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। गृहस्थ मनुष्यों को चाहिये कि जैसे घोड़े आदि पशुओं के खाने के लिये जौ, दूध आदि पदार्थों को पशुओं के पालक नित्य इकट्ठे करते हैं, वैसे अपने ऐश्वर्य्य को बढ़ाके सुख देवें और धन के अहङ्कार से किसी के साथ ईर्ष्या कभी न करें, किन्तु दूसरों की वृद्धि सुन वा देख के सदा आनन्द मानें ॥७५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनगृर्हस्थाः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(अहरहः) प्रतिदिनम् (अप्रयावम्) प्रयुवत्यन्यायं यस्मिन् स प्रयावो न विद्यते प्रयावो यस्मिन् गृहाश्रमे तम् (भरन्तः) धरन्तः (अश्वायेव) यथाश्वाय (तिष्ठते) वर्त्तमानाय (घासम्) भक्ष्यम् (अस्मै) गृहाश्रमाय (रायः) धनस्य (पोषेण) पुष्ट्या (सम्) (इषा) अन्नादिना (मदन्तः) हर्षन्तः (अग्ने) विद्वन् (मा) (ते) तव (प्रतिवेशाः) प्रतीता वेशा धर्मप्रवेशा येषां ते (रिषाम) हिंस्याम। अत्र लिङर्थे लुङ्। [अयं मन्त्रः शत०६.६.३.८ व्याख्यातः] ॥७५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! अहरहस्तिष्ठतेऽश्वायेवास्मा अप्रयावं घासं भरन्तो रायस्पोषेणेषा संमदन्तः प्रतिवेशाः सन्तो वयं त ऐश्वर्य्यं मा रिषाम ॥७५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। गृहस्था यथा अश्वादिपशूनां भोजनार्थं यवदुग्धादिकमश्वपालका नित्यं संचिन्वन्ति, तथैश्वर्य्यं समुन्नीय सुखयेयुः। धनमदेन केनचित् सहेर्ष्यां कदाचिन्न कुर्य्युः, परस्योत्कर्षं श्रुत्वा दृष्ट्वा च सदा हृष्येयुः ॥७५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे घोड्यांसाठी त्याचे मालक खाण्याचे पदार्थ साठवून ठेवतात त्याप्रमाणे गृहस्थांनी आपले ऐश्वर्य वाढवून (सर्वांना) सुख द्यावे. धनाचा अहंकार बाळगून कुणाशी ईर्षेने वागू नये. उलट दुसऱ्याची उन्नती व धन पाहून नेहमी आनंद मानावा.