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यद॑ग्ने॒ कानि॒ कानि॑ चि॒दा ते॒ दारु॑णि द॒ध्मसि॑। सर्वं॒ तद॑स्तु ते घृ॒तं तज्जु॑षस्व यविष्ठ्य ॥७३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। अ॒ग्ने॒। कानि॑। कानि॑। चि॒त्। आ। ते॒। दारु॑णि। द॒ध्मसि॑। सर्व॑म्। तत्। अ॒स्तु॒। ते॒। घृ॒तम्। तत्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥७३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:73


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्रीपुरुषों के प्रति सम्बन्धी लोग क्या-क्या प्रतिज्ञा करें और करावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यविष्ठ्य) अत्यन्त युवावस्था को प्राप्त हुए (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान् पुरुष वा स्त्री ! आप जैसे (कानि कानिचित्) कोई-कोई भी वस्तु (ते) तेरी हैं, वे हम लोग (दारुणि) काष्ठ के पात्र में (आ दध्मसि) धारण करें (यत्) जो कुछ हमारी चीज है (तत्) सो (सर्वम्) सब (ते) तेरी (अस्तु) होवे, जो हमारा (घृतम्) घृतादि उत्तम पदार्थ है, (तत्) उस को तू (जुषस्व) सेवन कर। जो कुछ तेरा पदार्थ है, सो सब हमारा हो, जो तेरा घृतादि पदार्थ है, उसको हम ग्रहण करें ॥७३ ॥
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारी आदि मनुष्य अपने सब पदार्थ सब के उपकार के लिये रक्खें, किन्तु ईर्ष्या से आपस में कभी भेद न करें, जिस से सब के लिये सब सुखों की वृद्धि होवे और विघ्न न उठें। इसी प्रकार स्त्री-पुरुष भी परस्पर वर्त्तें ॥७३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषौ प्रति सम्बन्धिनः किं किं प्रतिजानीरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(यत्) (अग्ने) अग्निरिव वर्तमान (कानि) (कानि) (चित्) अपि (आ) (ते) तुभ्यं तव वा (दारुणि) काष्ठे (दध्मसि) धरामः (सर्वम्) (तत्) (अस्तु) (ते) तव (घृतम्) आज्यम् (तत्) (जुषस्व) (यविष्ठ्य) अतिशयेन युवा यविष्ठः स एव यविष्ठ्यः तत्सम्बुद्धौ। [अयं मन्त्रः शत०६.६.३.५ व्याख्यातः] ॥७३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे यविष्ठ्याग्ने विद्वान् पते स्त्रि वा ! यथा कानि कानिचिद्वस्तूनि ते सन्ति, तद्वद्वयं दारुण्यादध्मसि। यदस्माकं वस्त्वस्ति तत्सर्वं तेऽस्तु यदस्माकं घृतं तत्त्वं जुषस्व। यत्ते वस्त्वस्ति तत्सर्वमस्माकमस्तु, यत्ते घृतादिकं वस्त्वस्ति तद्वयं गृह्णीमः ॥७३ ॥
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचर्यादिभिर्मनुष्यैः स्वकीयाः सर्वे पदार्थाः सर्वार्था निधातव्याः। न कदाचिदीर्ष्यया परस्परं भेत्तव्यम्, यतः सर्वेषां सर्वाणि सुखानि वर्धेरन्, विघ्नाश्च नोत्तिष्ठेरन्नेवं स्त्रीपुरुषावपि परस्परं वर्त्तेयाताम् ॥७३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारी माणसांनी आपल्याजवळील सर्व पदार्थांनी सर्वांवर उपकार करावा. ईर्षेने आपापसात कधीही भेदभाव करू नये. ज्यामुळे सर्वांच्या सुखाची वृद्धी व्हावी व विघ्न निर्माण होऊ नये अशा प्रकारेच स्त्री-पुरुषांनीही परस्पर वागावे.