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दृꣳह॑स्व देवि पृथिवि स्व॒स्तय॑ऽआसु॒री मा॒या स्व॒धया॑ कृ॒तासि॑। जुष्टं॑ दे॒वेभ्य॑ऽइ॒दम॑स्तु ह॒व्यमरि॑ष्टा॒ त्वमुदि॑हि य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन् ॥६९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दृꣳह॑स्व। दे॒वि॒। पृ॒थि॒वि॒। स्व॒स्तये॑। आ॒सु॒री। मा॒या। स्व॒धया॑। कृ॒ता। अ॒सि॒। जुष्ट॑म्। दे॒वेभ्यः॑। इ॒दम्। अ॒स्तु॒। ह॒व्यम्। अरि॑ष्टा। त्वम्। उत्। इ॒हि॒। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन् ॥६९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:69


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पति अपनी स्त्री से क्या-क्या कहे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पृथिवि) भूमि के समान विद्या के विस्तार को प्राप्त हुई (देवि) विद्या से युक्त पत्नि ! तू ने (स्वस्तये) सुख के लिये (स्वधया) अन्न वा जल से जो (आसुरी) प्राणपोषक पुरुषों की (माया) बुद्धि है, उस को (कृता) सिद्ध की (असि) है। उस से (त्वम्) तू मुझ पति को (दृंहस्व) उन्नति दे (अरिष्टा) हिंसारहित हुई (अस्मिन्) इस (यज्ञे) सङ्ग करने योग्य गृहाश्रम में (उदिहि) प्रकाश को प्राप्त हो। जो तू ने (जुष्टम्) सेवन किया (इदम्) यह (हव्यम्) देने-लेने योग्य पदार्थ है, वह (देवेभ्यः) विद्वानों वा उत्तम गुण होने के लिये (अस्तु) होवे ॥६९ ॥
भावार्थभाषाः - जो स्त्री पति को प्राप्त हो के घर में वर्त्तती है, वह अच्छी बुद्धि से सुख के लिये प्रयत्न करे। सब अन्न आदि खाने-पीने के पदार्थ रुचिकारक बनवावे वा बनावे और किसी को दुःख वा किसी के साथ वैरबुद्धि कभी न करे ॥६९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पतिः स्वपत्नीं प्रति किं किं वदेदित्याह ॥

अन्वय:

(दृंहस्व) वर्द्धस्व (देवि) विद्यायुक्ते (पृथिवि) भूमिरिव पृथुविद्ये (स्वस्तये) सुखाय (आसुरी) येऽसुषु प्राणेषु रमन्ते तेषां स्वा (माया) प्रज्ञा (स्वधया) उदकेनान्नेन वा (कृता) निष्पादिता (असि) (जुष्टम्) सेवितम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्येभ्यो गुणेभ्यो वा (इदम्) (अस्तु) (हव्यम्) दातुं योग्यं विज्ञानम् (अरिष्टा) अहिंसिता (त्वम्) (उत्) (इहि) प्राप्नुहि (यज्ञे) सङ्गन्तव्ये गृहाश्रमे (अस्मिन्) वर्त्तमाने। [अयं मन्त्रः शत०६.६.२.६ व्याख्यातः] ॥६९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पृथिवि देवि पत्नि ! त्वया स्वस्तये याऽऽसुरी मायाऽस्ति, सा कृतासि, तया त्वं मां पतिं दृंहस्वाऽरिष्टा सत्यस्मिन् यज्ञ उदिहि। यत् त्वयेदं जुष्टं हव्यं कृतमस्ति तद् देवेभ्योऽस्तु ॥६९ ॥
भावार्थभाषाः - या स्त्री पतिं प्राप्य गृहे वर्त्तते, तया सुबुद्ध्या सुखाय प्रयत्नो विधेयः। सुसंस्कृतं सर्वमन्नादिप्रीतिकरं संपादनीयम्। न कदाचित् कस्यचिद्धिंसा वैरबुद्धिर्वा क्वचित् कार्या ॥६९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विवाहित स्त्रीने पतीच्या घरी उत्तम बुद्धीने वागून सुख मिळविण्याचा प्रयत्न करावा. अन्न व खाण्यापिण्याचे पदार्थ रुचकर बनवावेत किंवा बनवून घ्यावेत. कुणालाही दुःख देऊ नये किंवा कुणाशी वैर ठेवू नये.