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दे॒वस्त्वा॑ सवि॒तोद्व॑पतु सुपा॒णिः स्व॑ङ्गु॒रिः सु॑बा॒हुरु॒त शक्त्या॑। अव्य॑थमाना पृथि॒व्यामाशा॒ दिश॒ऽआपृ॑ण ॥६३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वः। त्वा॒। स॒वि॒ता। उत्। व॒प॒तु॒। सु॒पा॒णिरिति॑ सुऽपा॒णिः। स्व॑ङ्गु॒रिरिति॑ सुऽअङ्गु॒रिः। सु॒बा॒हुरिति॑ सुऽबा॒हुः। उ॒त। शक्त्या॑। अव्य॑थमाना। पृ॒थि॒व्याम्। आशाः॑। दिशः॑। आ। पृ॒ण॒ ॥६३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:63


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! (सुबाहुः) अच्छे जिसके भुजा (सुपाणिः) सुन्दर हाथ और (स्वङ्गुरिः) शोभायुक्त जिसकी अंगुली हो ऐसा (सविता) सूर्य के समान ऐश्वर्य्यदाता (देवः) अच्छे गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त पति (शक्त्या) अपने सामर्थ्य से (पृथिव्याम्) पृथिवी पर स्थित (त्वा) तुझ को (उद्वपतु) वृद्धि के साथ गर्भवती करे। (उत) और तू भी अपने सामर्थ्य से (अव्यथमाना) निर्भय हुई पति के सेवन से अपनी (आशाः) इच्छा और कीर्ति से सब (दिशः) दिशाओं को (आपृण) पूरण कर ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्रीपुरुषों को चाहिये कि आपस में प्रसन्न एक-दूसरे को हृदय से चाहनेवाले परस्पर परीक्षा कर अपनी-अपनी इच्छा से स्वयंवर विवाह कर अत्यन्त विषयासक्ति को त्याग, ऋतुकाल में गमन करनेवाले होकर, अपने सामर्थ्य की हानि कभी न करें। क्योंकि इसी से जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषों के शरीर में कोई रोग प्रगट और बल की हानि भी नहीं होती। इसलिये इस का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये ॥६३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवः) दिव्यगुणकर्मस्वभावः पतिः (त्वा) त्वाम् (सविता) सूर्य इवैश्वर्य्यप्रदः (उत्) उत्कृष्टया (वपतु) बीजवत् संतनोतु (सुपाणिः) प्रशस्तहस्तः (स्वङ्गुरिः) शोभना अङ्गुलयो यस्य सः। कपिलकादित्वाल्लत्वम्। (सुबाहुः) शोभनभुजः (उत) अपि (शक्त्या) सामर्थ्येन सह वर्त्तमानो वर्त्तमाना वा (अव्यथमाना) अभीताऽचलिता सती (पृथिव्याम्) पृथिवीस्थायाम् (आशाः) इच्छाः (दिशः) काष्ठाः (आ) (पृण) पिपूर्द्धि। [अयं मन्त्रः शत०६.५.४.११ व्याख्यातः] ॥६३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! सुबाहुः सुपाणिः स्वङ्गुरिः सवितेव देवः पतिः शक्त्या पृथिव्यां त्वोद्वपतूत शक्त्याऽव्यथमाना सती त्वं पत्युः सेवनेन स्वकीया आशा यशसा दिशश्च आपृण ॥६३ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्रीपुरुषौ परस्परं प्रीतौ हृद्यौ सुपरीक्षितौ स्वेच्छया स्वयंवरं विवाहं कृत्वाऽतिविषयासक्तिं विहाय ऋतुगामिनौ सन्तौ सामर्थ्यहानिं कदाचिन्न कुर्य्याताम्। नहि जितेन्द्रिययोः स्त्रीपुरुषयो रोगप्रादुर्भावो बलहानिश्च जायते। तस्मादेतदनुतिष्ठेताम् ॥६३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषांनी आपापसात प्रसन्न राहून एकमेकांवर अंतःकरणपूर्वक प्रेम करून परस्पर परीक्षा करून आपापल्या इच्छेने स्वयंवर विवाह करावा. अत्यंत विषयासक्तीचा त्याग करावा व ऋतुकालीच समागम करावा. आपल्या सामर्थ्याची हानी कधीच करू नये. यामुळेच स्त्री-पुरुष जितेन्द्रिय होतात. शरीर रोगी होत नाही, त्याच्या शक्तीचा ऱ्हास होत नाही. त्यासाठी अशा प्रकारचे अनुष्ठान केले पाहिजे.