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सꣳसृ॑ष्टां॒ वसु॑भी रु॒द्रैर्धीरैः॑ कर्म॒ण्यां᳕ मृद॑म्। हस्ता॑भ्यां मृ॒द्वीं कृ॒त्वा सि॑नीवा॒ली कृ॑णोतु॒ ताम् ॥५५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सꣳसृ॑ष्टा॒मिति॒ सम्ऽसृ॑ष्टाम्। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। रु॒द्रैः। धीरैः॑। क॒र्म॒ण्या᳕म्। मृद॑म्। हस्ता॑भ्याम्। मृ॒द्वीम्। कृ॒त्वा। सि॒नी॒वा॒ली। कृ॒णो॒तु॒। ताम् ॥५५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:55


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्रियों को कैसी दासी रखनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पते ! आप जैसे कारीगर मनुष्य (हस्ताभ्याम्) हाथों से (कर्मण्याम्) क्रिया से सिद्ध की हुई (मृदम्) मट्टी को योग्य करता है, वैसे (धीरैः) अच्छा संयम रखने (वसुभिः) जो चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य के सेवन से विद्या को प्राप्त हुए (रुद्रैः) और जिन्होंने चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य के सेवन से विद्या बल को पूर्ण किया हो, उन्हीं से (संसृष्टाम्) अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुई हो, उस ब्रह्मचारिणी युवती को (मृद्वीम्) कोमल गुणवाली (कृणोतु) कीजिये और जो स्त्री (सिनीवाली) प्रेमबद्ध कन्याओं को बलवान् करनेवाली है (ताम्) उसको अपनी स्त्री (कृत्वा) करके सुखी कीजिये ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे कुम्हार आदि कारीगर लोग जल से मट्टी को कोमल कर उससे घड़े आदि पदार्थ बना के सुख के काम सिद्ध करते हैं, वैसे ही विद्वान् माता-पिता से शिक्षा को प्राप्त हुई हृदय को प्रिय ब्रह्मचारिणी कन्याओं को पुरुष लोग विवाह के लिये ग्रहण कर के सब काम सिद्ध करें ॥५५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्रीभिः किंभूताः सेविका रक्षणीया इत्याह ॥

अन्वय:

(संसृष्टाम्) सम्यक् सुशिक्षया निष्पादिताम् (वसुभिः) कृतेन चतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्य्येण प्राप्तविद्यैः (रुद्रैः) सेवितेन चतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्य्येण विद्याबलयुक्तैः (धीरैः) सुसंयमैः (कर्मण्याम्) या कर्मभिः सपंद्यते ताम्। अत्र कर्मवेषाद्यत् ॥ (अष्टा०५.१.१००) इति कर्मशब्दात् संपादिन्यर्थे यत्। (मृदम्) कोमलाङ्गीम् (हस्ताभ्याम्) (मृद्वीम्) मृदुगुणस्वभावाम् (कृत्वा) (सिनीवाली) या सिनीः प्रेमबद्धाः कन्या वलयति सा (कृणोतु) करोतु (ताम्)। [अयं मन्त्रः शत०६.५.१.९ व्याख्यातः] ॥५५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे पते ! भवान् शिल्पी हस्ताभ्यां कर्मण्यां मृदमिव धीरैर्वसुभी रुद्रैर्या शिक्षया संसृष्टां मृद्वीं कृणोतु, या सिनीवाली वर्त्तते तां स्त्रियं कृत्वा सुखयतु ॥५५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कुलालादिभिः शिल्पिभिर्जलेन मृत्तिकां कोमलां कृत्वा तत्संभूतान् घटादीन् रचयित्वा सुखकार्य्याणि साध्नुवन्ति, तथैव विद्वद्भिर्मातापितृभिः शिक्षिता हृद्याः कन्याः ब्रह्मचारिणी विवाहाय सङ्गृह्य गृहकृत्यानि साध्नुवन्तु ॥५५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे कुंभार मऊ माती व पाणी यांच्या साह्याने घट इत्यादी तयार करतात व सुख देतात तसे विद्वान माता व पिता यांच्यापासून शिक्षण घेऊन आपल्या अंतःकरणाला प्रिय वाटेल अशा ब्रह्मचारिणी कन्यांबरोबर विवाह करून पुरुषांनी गृहस्थाश्रमातील सर्व कार्ये सिद्ध करावीत.