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शि॒वो भ॑व प्र॒जाभ्यो॒ मानु॑षीभ्य॒स्त्वम॑ङ्गिरः। मा द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॒भि शो॑ची॒र्मान्तरि॑क्षं॒ मा वन॒स्पती॑न् ॥४५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शि॒वः। भ॒व॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒जाऽभ्यः॑। मानु॑षीभ्यः। त्वम्। अ॒ङ्गि॒रः॒। मा। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒भि। शो॒चीः॒। मा। अ॒न्तरि॑क्षम्। मा। वन॒स्पती॑न् ॥४५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:45


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उन को प्रजा में कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अङ्गिरः) प्राणों के समान प्रिय सुसन्तान ! (त्वम्) तू (मानुषीभ्यः) मनुष्य आदि (प्रजाभ्यः) प्रसिद्ध प्रजाओं के लिये (शिवः) कल्याणकारी मङ्गलमय (भव) हो (द्यावापृथिवी) बिजुली और भूमि के विषय में (मा) मत (अभिशोचीः) अति शोच कर (अन्तरिक्षम्) अवकाश के विषय में (मा) मत शोच कर और (वनस्पतीन्) वट आदि वनस्पतियों का (मा) शोच मत कर ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - सुसन्तानों को चाहिये कि प्रजा के प्रति मङ्गलाचारी हो के पृथिवी आदि पदार्थों के विषय में शोकरहित होवें, किन्तु इन सब पदार्थों की रक्षा विधान कर उपकार के लिये उत्साह के साथ प्रयत्न करें ॥४५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तैः प्रजासु कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(शिवः) कल्याणकरो मङ्गलमयः (भव) (प्रजाभ्यः) प्रसिद्धाभ्यः (मानुषीभ्यः) मनुष्यादिभ्यः (त्वम्) (अङ्गिरः) प्राण इव प्रिय (मा) निषेधे (द्यावापृथिवी) विद्युद्भूमी (अभि) आभ्यन्तरे (शोचीः) शोकं कुर्य्याः (मा) (अन्तरिक्षम्) अवकाशम् (मा) (वनस्पतीन्) वटादीन्। [अयं मन्त्रः शत०६.४.४.४ व्याख्यातः] ॥४५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अङ्गिरः ! त्वं मानुषीभ्यः प्रजाभ्यः शिवो भव, द्यावापृथिवी माभिशोचीरन्तरिक्षं माभिशोचीर्वनस्पतीन् माभिशोचीः ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - सन्तानैः प्रजाः प्रति मङ्गलाचरणेन भूत्वा पृथिव्यादीनां मध्ये निश्शोकैः स्थातव्यम्। किन्त्वेषां रक्षां विधायोपकारायोत्साहतया प्रयतितव्यम् ॥४५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - उत्तम संतानांनी नेहमी लोकांचे कल्याण करावे. भूमी व पदार्थांबाबत अधिक दुःख करू नये. मात्र सर्व पदार्थांचे रक्षण करून जनकल्याणासाठी उत्साहाने प्रयत्न करावा.