वांछित मन्त्र चुनें

ऊ॒र्ध्वऽऊ॒ षु ण॑ऽऊ॒तये॒ तिष्ठा॑ दे॒वो न स॑वि॒ता। ऊ॒र्ध्वो वाज॑स्य॒ सनि॑ता॒ यद॒ञ्जिभि॑र्वा॒घद्भि॑र्वि॒ह्वया॑महे ॥४२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऊ॒र्ध्वः। ऊ॒ इत्यूँ॑। सु। नः॒। ऊ॒तये॑। तिष्ठ॑। दे॒वः। न। स॒वि॒ता। ऊ॒र्ध्वः। वाज॑स्य। सनि॑ता। यत्। अ॒ञ्जिभि॒रित्य॒ञ्जिऽभिः॑। वा॒घद्भि॒रिति॑ वा॒घत्ऽभिः॑। वि॒ह्वया॑महे॒ इति॑ वि॒ह्वया॑महे ॥४२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:42


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक विद्वान् ! आप (ऊर्ध्वः) ऊपर आकाश में रहनेवाले (देवः) प्रकाशक (सविता) सूर्य्य के (न) समान (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (सुतिष्ठ) अच्छे प्रकार स्थित हूजिये (यत्) जो आप (अञ्जिभिः) प्रकट करने हारे किरणों के सदृश (वाघद्भिः) युद्धविद्या में कुशल बुद्धिमानों के साथ (वाजस्य) विज्ञान के (सनिता) सेवनेहारे हूजिये (उ) उसी को हम लोग (विह्वयामहे) विशेष करके बुलाते हैं ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अध्यापक और उपदेशक विद्वान् को चाहिये कि जैसे सूर्य्य, भूमि और चन्द्रमा आदि लोकों से ऊपर स्थित होके, अपनी किरणों से सब जगत् की रक्षा के लिये प्रकाश करता है, वैसे उत्तम गुणों से विद्या और न्याय का प्रकाश करके सब प्रजाओं को सदा सुशोभित करें ॥४२ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वत्कृत्यमाह ॥

अन्वय:

(ऊर्ध्वः) उपरिस्थः (उ) (सु) (नः) अस्माकम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (तिष्ठ) द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा०६.३.१३५] इति दीर्घः। (देवः) द्योतकः (न) इव (सविता) भास्करः (ऊर्ध्वः) उत्कृष्टः (वाजस्य) विज्ञानस्य (सनिता) संभाजकः (यत्) यः (अञ्जिभिः) व्यक्तिकारकैः किरणैः (वाघद्भिः) युद्धविद्याकुशलैर्मेधाविभिः (विह्वयामहे) विशेषेण स्पर्द्धामहे। [अयं मन्त्रः शत०६.४.३.१० व्याख्यातः] ॥४२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन्नध्यापक ! त्वमूर्ध्वः सविता देवो न न ऊतये सुतिष्ठ सुस्थिरो भव। यद्यस्त्वमञ्जिभिर्वाघद्भिः सह वाजस्य सनिता भव तमु वयं विह्वयामहे ॥४२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। अध्यापकोपदेशका जना यथा सविता भूमिचन्द्रादिभ्य उपरिस्थः सन् स्वज्योतिषा सर्वं संरक्ष्य प्रकाशयति, तथोत्कृष्टगुणैर्विद्यान्यायं प्रकाश्य सर्वाः प्रजाः सदा सुशोभयेयुः ॥४२ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सूर्य जसा भूमी व चंद्र इत्यादी ग्रह गोलांवर आपली प्रकाशकिरणे प्रसृत करतो व त्या प्रकाशाने जगाचे रक्षण करतो तसे अध्यापक व उपदेशक विद्वानांनी आपल्या उत्तम गुणांनी विद्या व न्याय यांच्या द्वारे सर्व प्रजेला उत्तम बनवावे.