उदु॑ तिष्ठ स्वध्व॒रावा॑ नो दे॒व्या धि॒या। दृ॒शे च॑ भा॒सा बृ॑ह॒ता सु॑शु॒क्वनि॒राग्ने॑ याहि सुश॒स्तिभिः॑ ॥४१ ॥
उत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ति॒ष्ठ॒। स्व॒ध्व॒रेति॑ सुऽअध्वर। अव॑। नः॒। दे॒व्या। धि॒या। दृ॒शे। च॒। भा॒सा। बृ॒ह॒ता। सु॒शु॒क्वनि॒रिति॑ सुऽशु॒क्वनिः॑। आ। अ॒ग्ने॒। या॒हि॒। सु॒श॒स्तिभि॒रिति॑ सुश॒स्तिऽभिः॑ ॥४१ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी विद्वानों का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्विद्वत्कृत्यमाह ॥
(उत्) (उ) (तिष्ठ) (स्वध्वर) शोभना अध्वरा अहिंसनीया माननीया व्यवहारा यस्य तत्सम्बुद्धौ (अव) रक्ष। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा०६.३.१३५] इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (देव्या) शुद्धविद्याशिक्षापन्नया (धिया) प्रज्ञया क्रियया वा (दृशे) द्रष्टुम् (च) (भासा) प्रकाशेन (बृहता) महता (सुशुक्वनिः) सुष्ठु शुचां पवित्राणां वनिः संभक्ता (आ) (अग्ने) विद्वन् (याहि) प्राप्नुहि (सुशस्तिभिः) शोभनैः प्रशंसितैर्गुणैः। [अयं मन्त्रः शत०६.४.३.९ व्याख्यातः] ॥४१ ॥