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सꣳसी॑दस्व म॒हाँ२ऽअ॑सि॒ शोच॑स्व देव॒वीत॑मः। वि धू॒मम॑ग्नेऽअरु॒षं मि॑येध्य सृ॒ज प्र॑शस्त दर्श॒तम् ॥३७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। सी॒द॒स्व॒। म॒हान्। अ॒सि॒। शोच॑स्व। दे॒व॒वीत॑म॒ इति॑ देव॒ऽवीत॑मः। वि। धू॒मम्। अ॒ग्ने॒। अ॒रु॒षम्। मि॒ये॒ध्य॒। सृ॒ज। प्र॒श॒स्तेति॑ प्रऽशस्त। द॒र्श॒तम् ॥३७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:37


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

इस पठन-पाठन विषय में अध्यापक कैसा होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (प्रशस्त) प्रशंसा के योग्य (मियेध्य) दुष्टों को पृथक् करनेवाले (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! (देववीतमः) विद्वानों को अत्यन्त इष्ट आप (विधूमम्) निर्मल (दर्शतम्) देखने योग्य (अरुषम्) सुन्दर रूप को (सृज) सिद्ध कीजिये तथा (शोचस्व) पवित्र हूजिये। जिस कारण आप (महान्) बड़े-बड़े गुणों से युक्त विद्वान् (असि) हैं, इसलिए पढ़ाने की गद्दी पर (संसीदस्व) अच्छे प्रकार स्थित हूजिये ॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानों का अत्यन्त प्रिय, अच्छे रूप, गुण और लावण्य से युक्त, पवित्र, बड़ा धर्मात्मा, आप्त विद्वान् होवे, वही शास्त्रों के पढ़ाने को समर्थ होता है ॥३७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेहाध्यापकः कीदृशः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

(सम्) (सीदस्व) अध्यापने आस्व (महान्) महागुणविशिष्टः (असि) (शोचस्व) पवित्रो भव (देववीतमः) देवैर्विद्वद्भिः कमनीयतमः (वि धूमम्) विगतमलम् (अग्ने) विद्वत्तम (अरुषम्) शोभनस्वरूपम्। अरुषमिति रूपनामसु पठितम् ॥ (निघं०३.७) (मियेध्य) मिनोति प्रक्षिपति दुष्टान् तत्सम्बुद्धौ। अत्र बाहुलकादौणादिक एध्य प्रत्ययः किच्च। (सृज) निष्पद्यस्व (प्रशस्त) श्लाघ्य (दर्शतम्) द्रष्टव्यम्। [अयं मन्त्रः शत०६.४.२.९ व्याख्यातः] ॥३७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रशस्त मियेध्याग्ने ! देववीतमस्त्वं विधूमं दर्शतमरुषं सृज शोचस्व च, यतस्त्वं महान् विद्वानसि, तस्मादध्यापने संसीदस्व ॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - यो मनुष्यो विदुषां प्रियतमः सुरूपगुणलावण्यसंपन्नः पवित्रोपचितो महानाप्तो विद्वान् भवेत्, स एव शास्त्राण्यध्यापयितुं शक्नोति ॥३७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानांमध्ये प्रिय, तेजस्वी, पवित्र, श्रेष्ठ धर्मात्मा, आप्त व विद्वान बनतो तोच शास्त्र शिकवू शकतो.