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आ वि॒श्वतः॑ प्र॒त्यञ्चं॑ जिघर्म्यर॒क्षसा॒ मन॑सा॒ तज्जु॑षेत। मर्य्य॑श्रीः स्पृह॒यद्व॑र्णोऽअ॒ग्निर्नाभि॒मृशे॑ त॒न्वा᳕ जर्भु॑राणः ॥२४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वि॒श्वतः॑। प्र॒त्यञ्च॑म्। जि॒घ॒र्मि॒। अ॒र॒क्षसा॑। मन॑सा। तत्। जु॒षे॒त॒। मर्य्य॑श्रीरिति॒ मर्य्य॑ऽश्रीः। स्पृ॒ह॒यद्व॑र्ण॒ इति॑ स्पृह॒यत्ऽव॑र्णः। अ॒ग्निः। न। अ॒भि॒मृश॒ इत्य॑भि॒ऽमृशे॑। त॒न्वा᳕। जर्भु॑राणः ॥२४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:24


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वायु और अग्नि कैसे गुणवाले हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! (न) जैसे (विश्वतः) सब ओर से (अग्निः) बिजुली और प्राण वायु शरीर में व्यापक होके (अभिमृशे) सहनेवाले के लिये हितकारी हैं, जैसे (तन्वा) शरीर से (जर्भुराणः) शीघ्र हाथ-पाँव आदि अङ्गों को चलाता हुआ (स्पृहयद्वर्णः) इच्छावालों ने स्वीकार किये हुए के समान (मर्य्यश्रीः) मनुष्यों की शोभा के तुल्य वायु के समान वेगवाला होके मैं जिस (प्रत्यञ्चम्) शरीर के वायु को निरन्तर चलानेवाली विद्युत् को (अरक्षसा) राक्षसों की दुष्टता से रहित (मनसा) चित्त से (आजिघर्मि) प्रकाशित करता हूँ, वैसे (तत्) उस तेज को (जुषेत) सेवन कर ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! तुम लोग लक्ष्मी प्राप्त करानेहारे अग्नि आदि पदार्थों को जान और उनको कार्यों में संयुक्त करके धनवान् होओ ॥२४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कीदृशौ वाय्वग्नी स्त इत्याह ॥

अन्वय:

(आ) (विश्वतः) सर्वतः (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यगञ्चतीति शरीरस्थं वायुम् (जिघर्मि) (अरक्षसा) रक्षोवद् दुष्टतारहितेन (मनसा) चित्तेन (तत्) तेजः (जुषेत) (मर्य्यश्रीः) मर्य्याणां मनुष्याणां श्रीरिव (स्पृहयद्वर्णः) यः स्पृहयद्भिर्वर्ण्यते स्वीक्रियते स इव (अग्निः) शरीरस्था विद्युत् (न) इव (अभिमृशे) आभिमुख्येन मृशन्ति सहन्ते येन तस्मै (तन्वा) शरीरेण (जर्भुराणः) भृशं गात्राणि विनामयत्। अत्र जृभीधातोरौणादिक उरानन् प्रत्ययः। [अयं मन्त्रः शत०६.३.३.२० व्याख्यातः] ॥२४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यो न यथा विश्वतोऽग्निर्वायुश्चाभिमृशेऽस्ति यथा तन्वा जर्भुराणः स्पृहयद्वर्णो मर्यश्रीरहं यं प्रत्यञ्चमरक्षसा मनसाऽऽजिघर्मि तथा तज्जुषेत ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! यूयं लक्ष्मीप्रापकैरग्न्यादिपदार्थैर्विदितैः कार्य्येषु संयुक्तैः श्रीमन्तो भवत ॥२४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! ऐश्वर्य प्राप्त करून देणाऱ्या अग्नी इत्यादी पदार्थांना तुम्ही जाणा व त्यांचा उपयोग करून धनवान बना.