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आ॒विर्म॑र्या॒ऽआवि॑त्तोऽअ॒ग्निर्गृ॒हप॑ति॒रावि॑त्त॒ऽइन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वा॒ऽआवि॑त्तौ मि॒त्रावरु॑णौ धृतव्र॑ता॒वावि॑त्तः पू॒षा वि॒श्ववे॑दा॒ऽआवि॑त्ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी वि॒श्वश॑म्भुवा॒वावि॒त्तादि॑तिरु॒रुश॑र्मा ॥९॥

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पद पाठ

आ॒विः। म॒र्य्याः॒। आवि॑त्त॒ इत्याऽवि॑त्तः। अ॒ग्निः। गृ॒हप॑ति॒रिति॑ गृ॒हऽप॑तिः। आवि॑त्त॒ इत्याऽवि॑त्तः। इन्द्रः॑। वृ॒द्धश्र॑वा॒ इति॑ वृ॒द्धऽश्र॑वाः। आवि॑त्ता॒वित्याऽवित्तौ। मि॒त्रावरु॑णौ। धृ॒तव्र॑ता॒विति॑ धृ॒तऽव्र॑तौ। आवि॑त्त॒ इत्याऽवि॑त्तः। पू॒षा। वि॒श्ववे॑दा॒ इति॑ वि॒श्वऽवे॑दाः। आवि॑त्ते॒ इत्याऽवि॑त्ते। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। वि॒श्वश॑म्भुवा॒विति॑ वि॒श्वऽश॑म्भुवौ। आवि॒त्तेत्याऽवि॑त्ता। अदि॑तिः। उ॒रुश॒र्म्मेत्यु॒रुऽश॑र्म्मा ॥९॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:9


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को चाहिये कि अपना स्वभाव अच्छा करके आप्त विद्वान् आदि को अवश्य प्राप्त होवें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मर्य्याः) मनुष्यो ! तुम लोग जो (गृहपतिः) घरों के पालन करनेहारे (अग्निः) प्रसिद्ध अग्नि के समान विद्वान् पुरुष को (आविः) प्रकटता से (आवित्तः) प्राप्त वा निश्चय करके जाना (वृद्धश्रवाः) श्रेष्ठता से सब शास्त्रों को सुने हुए (इन्द्रः) शत्रुओं के मारनेहारे सेनापति को (आविः) प्रकटता से (आवित्तः) प्राप्त हो वा जाना (धृतवतौ) सत्य आदि व्रतों को धारण करनेहारे (मित्रावरुणौ) मित्र और श्रेष्ठ जनों को (आविः) प्रकटता से (आवित्तौ) प्राप्त वा जाना (विश्ववेदाः) सब ओषधियों को जाननेहारे (पूषा) पोषणकर्त्ता वैद्य को (आविः) प्रसिद्धि से (आवित्तः) प्राप्त हुए (विश्वशम्भुवौ) सब के लिये सुख देनेहारे (द्यावापृथिवी) बिजुली और भूमि को (आविः) प्रकटता से (आवित्ते) जाने (उरुशर्म्मा) बहुत सुख देनेवाली (अदितिः) विद्वान् माता को प्रसिद्ध (आवित्ता) प्राप्त हुए तो तुम को सब सुख प्राप्त हो जावें ॥९॥
भावार्थभाषाः - जब तक मनुष्य लोग श्रेष्ठ विद्वानों, उत्तम विदुषी माता और प्रसिद्ध पदार्थों के विज्ञान को प्राप्त नहीं होते, तब तक सुख की प्राप्ति और दुःखों की निवृत्ति करने को समर्थ नहीं होते ॥९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः सुशीलतयाऽऽप्तविद्वदादयोऽवश्यं प्राप्तव्या इत्याह ॥

अन्वय:

(आविः) प्राकट्ये (मर्य्याः) मर्या इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (आवित्तः) प्राप्तपूर्णभोगो लब्धप्रतीतो वा। वित्तो भोगप्रत्यययोः। (अष्टा०८.२.५८) अनेनायं निपातितः (अग्निः) पावक इव विद्वान् (गृहपतिः) गृहाणां पालकः (आवित्तः) (इन्द्रः) शत्रुविदारकः सेनाधीशः (वृद्धश्रवाः) वृद्धं श्रवः सर्वशास्त्रश्रवणं यस्य सः (आवित्तौ) (मित्रावरुणौ) सुहृद्वरौ (धृतव्रतौ) धृतानि व्रतानि सत्यादीनि याभ्यां तौ (आवित्तः) (पूषा) पोषको वैद्यः (विश्ववेदाः) विश्वं सर्वमौषधं विदितं येन सः (आवित्ते) (द्यावापृथिवी) विद्यद्भूमी (विश्वशम्भुवौ) विश्वस्मै शं सुखं भावुके (आवित्ता) (अदितिः) विदुषी माता (उरुशर्म्मा) उरूणि बहूनि सुखानि यस्याः सा ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.३.५.३१-३७) व्याख्यातः ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मर्य्या युष्माभिर्यदि गृहपतिरग्निराविरावित्तो वृद्धश्रवा इन्द्र आविरावित्तो धृतव्रतौ मित्रावरुणावाविरावित्तौ विश्ववेदाः पूषाऽऽविरावित्तो विश्वशम्भुवौ द्यावापृथिवी आविरावित्ते उरुशर्म्मादितिश्चाविरावित्ता स्यात् तर्हि सर्वाणि सुखानि प्राप्यन्ते ॥९॥
भावार्थभाषाः - यावन्मनुष्याः सद्विदुषः सतीं विदुषीं मातरं सत्यपदार्थविज्ञानं च नाप्नुवन्ति, तावत्सुखवृद्धिं दुःखनिवृत्तिं च कर्तुं न शक्नुवन्ति ॥९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांना जोपर्यंत श्रेष्ठ विद्वानांचा संग, उत्तम विदुषी माता व पदार्थांचे ज्ञान प्राप्त होऊ शकत नाही तोपर्यंत सुखाची प्राप्ती व दुःखाची निवृत्ती होऊ शकत नाही.