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सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे दत्त॒ स्वाहा शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ द॒त्तापः॑ स्व॒राज॑ स्थ राष्ट्र॒दा राष्ट्र॒म॒मुष्मै॑ दत्त। मधु॑मती॒र्मधु॑मतीभिः पृच्यन्तां॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य वन्वा॒नाऽअना॑धृष्टाः सीदत स॒हौज॑सो॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य॒ दध॑तीः ॥४॥

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पद पाठ

सूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्य॑ऽत्वचसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्यऽत्व॒चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मान्दाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒दाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। मान्दाः॑। स्थः॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्र॒ज॒ऽक्षितः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त। स्वाहा॑। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्रज॒ऽक्षितः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शक्व॑रीः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शक्व॑रीः। स्थ॒। राष्ट्रदा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वि॒श्व॒भृत॒ इति विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वि॒श्व॒भृत॒ इति॑ विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। आपः॑। स्व॒राज॒ इति॑ स्व॒ऽराजः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। मधु॑मतीभि॒रिति॒ मधु॑मतीऽभिः। पृ॒च्य॒न्ता॒म्। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रियाय॑। व॒न्वा॒नाः। अना॑धृष्टाः। सी॒द॒त॒। स॒हौज॑स॒ इति॑ स॒हऽओ॑जसः। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रिया॑य। दध॑तीः ॥४॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:4


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को कैसा हो के किस-किस के लिये क्या-क्या देना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजपुरुषो ! तुम लोग (सूर्य्यत्वचसः) सूर्य के समान अपने न्याय प्रकाश से सब तेज को ढाँकनेवाले होते हुए (स्वाहा) सत्य न्याय के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हो, इसलिये (मे) मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे मनुष्यो ! जिस कारण (सूर्यत्वचसः) सूर्य्यप्रकाश के समान विद्या पढ़नेवाले होते हुए तुम लोग (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हो, इसलिये (अमुष्मै) उस विद्या में सूर्यवत् प्रकाशमान पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे विद्वन् मनुष्यो ! (सूर्यवर्चसः) सूर्य के समान तेजधारी होते हुए तुम लोग (स्वाहा) सत्य वाणी से (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हो, इस कारण (मे) तेजस्वी मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये, जिस कारण (सूर्यवर्चसः) सूर्य्य के समान प्रकाशमान होते हुए आप लोग (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हो, इसलिये (अमुष्मै) उस प्रकाशमान पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण (मान्दाः) मनुष्यों को आनन्द देनेहारे होते हुए आप लोग (स्वाहा) सत्य वचनों के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाले (स्थ) हो, इसलिये (मे) आनन्द देनेहारे मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये, जिसलिये आप लोग (मान्दाः) प्राणियों को सुख देनेवाले होके (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हो, इसलिये (अमुष्मै) उस सुखदाता जन को (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (व्रजक्षितः) गौ आदि पशुओं के स्थानों को बसाते हुए (स्वाहा) सत्य क्रियाओं के सहित (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (मे) पशुरक्षक मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (व्रजक्षितः) स्थान आदि से पशुओं के रक्षक होते हुए (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हैं, इससे (अमुष्मै) उस गौ आदि पशुओं के रक्षक पुरुष के लिये राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (वाशाः) कामना करते हुए (स्वाहा) सत्यनीति से (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (मे) इच्छायुक्त मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (वाशाः) इच्छायुक्त होते हए (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाले (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस इच्छायुक्त पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (शविष्ठाः) अत्यन्त बलवाले होते हुए (स्वाहा) सत्य पुरुषार्थ से (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इस कारण (मे) बलवान् मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (शविष्ठाः) अति पराक्रमी (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इस कारण (अमुष्मै) उस अति पराक्रमी जन के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे राणी लोगो ! जिसलिये आप (शक्वरीः) सामर्थ्यवाली होती हुई (स्वाहा) सत्य पुरुषार्थ से (राष्ट्रदाः) राज्य देने हारी (स्थ) हैं, इसलिये (मे) सामर्थ्यवान् मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप (शक्वरीः) सामर्थ्ययुक्त (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाली (स्थ) हैं, इस कारण (अमुष्मै) उस सामर्थ्ययुक्त पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (जनभृतः) श्रेष्ठ मनुष्यों का पोषण करने हारी होती हुई (स्वाहा) सत्य कर्मों के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेवाली (स्थ) हैं, इसलिये (मे) श्रेष्ठ गुणयुक्त मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप (जनभृतः) सज्जनों को धारण करनेहारे (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस सत्यप्रिय पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे सभाध्यक्षादि राजपुरुषो ! जिसलिये आप लोग (विश्वभृतः) सब संसार का पोषण करनेवाले होते हुए (स्वाहा) सत्य वाणी के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हैं, इसलिये (मे) सब के पोषक मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (विश्वभृतः) विश्व को धारण करनेहारे (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस धारण करनेहारे मनुष्य के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (आपः) सब विद्या और धर्म विषय में व्याप्तिवाले होते हुए (स्वाहा) सत्य क्रिया से (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हैं, इस कारण (मे) शुभ गुणों में व्याप्त मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (आपः) सब विद्या और धर्म मार्ग को जाननेहारे (स्वराजः) आप से आप ही प्रकाशमान (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस धर्मज्ञ पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे सज्जन स्त्री लोगो ! आप को चाहिये कि (क्षत्रियाय) राजपूतों के लिये (महि) बड़े पूजा के योग्य (क्षत्रम्) क्षत्रियों के राज्य को (वन्वानाः) चाहती हुई (सहौजसः) बल-पराक्रम के सहित वर्त्तमान (क्षत्रियाय) राजपूतों के लिये (महि) बड़े (क्षत्रम्) राज्य को (दधतीः) धारण करती हुई (अनाधृष्टाः) शत्रुओं के वश में न आनेवाली (मधुमतीः) मधुर आदि रसवाली ओषधी (मधुमतीभिः) मधुरादि गुणयुक्त वसन्त आदि ऋतुओं से सुखों को (पृच्यन्ताम्) सिद्ध किया करें। हे सज्जन पुरुषो ! तुम लोग इस प्रकार की स्त्रियों को (सीदत) प्राप्त होओ ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्री पुरुषो ! जो सूर्य के समान न्याय और विद्या का प्रकाश कर सब को आनन्द देने, गौ आदि पशुओं की रक्षा करने, शुभ गुणों से शोभायमान, बलवान्, अपने तुल्य स्त्रियों से विवाह और संसार का पोषण करनेवाले स्वाधीन हैं, वे ही औरों के लिये राज्य देने और आप सेवन करने में समर्थ होते हैं, अन्य नहीं ॥४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्याः कीदृशा भूत्वा कस्मै किं किं प्रदद्युरित्याह ॥

अन्वय:

(सूर्यत्वचसः) सूर्य्यस्य त्वचः संवार इव त्वचो येषां ते (स्थ) भवथ (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (सूर्यत्वचसः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (सूर्यवर्चसः) सूर्य्यस्य प्रकाश इव वर्चो विद्याध्ययनं येषां ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (सूर्यवर्चसः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (मान्दाः) ये जनान् मन्दयन्त्यानन्दयन्ति त एव मान्दाः (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (मान्दाः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (व्रजक्षितः) व्रजान् गवादिस्थित्यर्थान् देशान् क्षियन्ति निवासयन्ति ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (व्रजक्षितः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (वाशाः) य उशन्ति कामयन्ते ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (वाशाः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (शविष्ठाः) अतिशयेन बलवन्तः (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (शविष्ठाः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (शक्वरीः) शक्तिमत्यः (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (शक्वरीः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (जनभृतः) ये जनान् बिभ्रति ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (जनभृतः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (विश्वभृतः) ये विश्वं बिभ्रति ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (विश्वभृतः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (आपः) सकलविद्याधर्मव्यापिनः (स्वराजः) ये स्वं राजन्ते ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (मधुमतीः) मधुरादिगुणयुक्ता ओषधयः (मधुमतीभिः) मधुरादिगुणयुक्ताभिर्वसन्तादिभिर्ऋतुभिः (पृच्यन्ताम्) परिपच्यन्ताम् (महि) महत्पूज्यं (क्षत्रम्) क्षत्रियाणां राज्यम् (क्षत्रियाय) क्षत्रस्य पुत्राय (वन्वानाः) याचमानाः (अनाधृष्टाः) शत्रुभिरधर्षिताः (सीदत) (सहौजसः) ओजसा बलेन सह वर्त्तमानाः (महि) (क्षत्रम्) (क्षत्रियाय) (दधतीः) धरमाणाः ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.३.४.१२-१८) व्याख्यातः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजपुरुषाः ! यतो यूयं सूर्य्यत्वचसः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतः सूर्य्यत्वचसः सन्तो यूयं राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं सूर्य्यवर्चसः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं सूर्य्यवर्चसो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं व्रजक्षितः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं व्रजक्षितः सन्तो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं वाशाः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं वाशाः सन्तो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं शविष्ठाः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं शविष्ठा राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं शक्वरीः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं शक्वरी राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं जनभृतः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं जनभृतो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं विश्वभृतः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं विश्वभृतो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयमापः स्वराजः सन्तो राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयमापः स्वराजः स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। हे सज्जनाः स्त्रियः ! युष्माभिः क्षत्रियाय महि क्षत्रं वन्वानाः सहौजसः क्षत्रियाय महि क्षत्रं दधतीरनाधृष्टा मधुमतीर्मधुमतीभिः सुखानि पृच्यन्ताम्। हे सज्जनाः पुरुषाः ! यूयमीदृशीः स्त्रियः सीदत प्राप्नुत ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे स्त्रीपुरुषाः ! हे मनुष्याः सूर्यवन्न्यायप्रकाशकाः सूर्य इव विद्यादीपकाः सर्वेषामानन्दप्रदा गवादिपशुरक्षकाः शुभगुणैः कमनीया बलवन्तः स्वसदृशस्त्रियः विश्वम्भरा स्वाधीनाः सन्ति, तेऽन्येभ्यो राज्यं दातुं सेवितुं च शक्नुवन्ति, नेतर इति यूयं विजानीत ॥४॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे स्री-पुरुषांनो ! सूर्याप्रमणे जे न्याय व विद्यारूपी प्रकाश देऊन सर्वांना आनंदित करतात, गाई इत्यादी पशूंचे रक्षण करतात, बलवान असतात, शुभगुणयुक्त असून आपल्यासारख्याच स्रीशी विवाह करून जगाचे पोषण करण्यास समर्थ असतात तेच राज्य करण्यास समर्थ असतात, अन्य नव्हे.