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पु॒त्रमि॑व पि॒तरा॑व॒श्विनो॒भेन्द्रा॒वथुः॒ काव्यै॑र्द॒ꣳसना॑भिः। यत्सु॒रामं॒ व्यपि॑बः॒ शची॑भिः॒ सर॑स्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥३४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒त्रमि॒वेति॑ पु॒त्रम्ऽइ॑व। पि॒तरौ॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। इन्द्र॑। आ॒वथुः॑। काव्यैः॑। द॒ꣳसना॑भिः। यत्। सु॒राम॑म्। वि। अपि॑बः। शची॑भिः। सर॑स्वती। त्वा॒ म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। अ॒भि॒ष्ण॒क् ॥३४॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:34


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा और प्रजा को पिता पुत्र के समान वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) विशेष धन के होने से सत्कार के योग्य (इन्द्र) सब सभाओं के मालिक राजन् ! (यत्) जो आप (शचीभिः) अपनी बुद्धियों के बल से (सुरामम्) अच्छा आराम देनेहारे रस को (व्यपिबः) विविध प्रकार से पीवें, उस आप का (सरस्वती) विद्या से अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुई, वाणी के समान स्त्री (अभिष्णक्) सेवन करे (अश्विना) राजा से आज्ञा को प्राप्त हुए (उभा) तुम दोनों सेनापति और न्यायाधीश (काव्यैः) परम विद्वान् धर्मात्मा लोगों के लिये (दंसनाभिः) कर्मों से (पितरौ) जैसे माता-पिता (पुत्रमिव) अपने सन्तान की रक्षा करते हैं, वैसे सब राज्य की (आवथुः) रक्षा करो ॥३४॥
भावार्थभाषाः - सब अच्छे-अच्छे गुणों से युक्त राजधर्म का सेवनेहारा धर्मात्मा, अध्यापक और पूर्ण युवा अवस्था को प्राप्त हुआ पुरुष, अपने हृदय को प्यारी, अपने योग्य, अच्छे लक्षणों से युक्त, रूप और लावण्य आदि गुणों से शोभायमान, विदुषी स्त्री के साथ विवाह करे, जो कि निरन्तर पति के अनुकूल हो, और पति भी उसके सम्मति का हो। राजा अपने मन्त्री, नौकर और स्त्री के सहित प्रजाओं में सत्पुरुषों की रीति पर पिता के समान और प्रजापुरुष पुत्र के समान राजा के साथ वर्त्तें। इस प्रकार आपस में प्रीति के साथ मिल के आनन्दित होवें ॥३४॥ इस अध्याय में राजा और प्रजा के धर्म का वर्णन होने से इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्व अध्याय के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्याणां श्रीमत्परमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतभाषाऽऽर्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये दशमोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥४॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजप्रजे पितापुत्रवद् वर्त्तेयातामित्याह ॥

अन्वय:

(पुत्रमिव) यथाऽपत्यानि (पितरौ) जननीजनकौ (अश्विना) सभासेनेशौ (उभा) द्वौ (इन्द्र) सर्वसभेश राजन् ! (आवथुः) सर्वं राज्यं रक्षेथाम् (काव्यैः) कविभिः परमविद्वद्भिर्धार्मिकैर्निर्मितैः (दंसनाभिः) कर्मभिः (यत्) यः (सुरामम्) शोभन आरामो येन रसेन तम् (व्यपिबः) विविधतया पिब (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (सरस्वती) विद्यासुशिक्षिता वागिव पत्नी (त्वा) त्वाम् (मघवन्) पूजितधनवन् (अभिष्णक्) उपसेवताम्। भिष्णज् उपसेवायामिति कण्ड्वादिधातोर्लङि विकरणव्यत्ययेन यको लुक्। अन्यत् कार्य्यं स्पष्टम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.५.४.२६) व्याख्यातः ॥३४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मघवन्निन्द्र यत् वं शचीभिः सुरामं व्यपिबस्तं त्वा सरस्वत्यभिष्णक्। हे अश्विना राजाज्ञापितावुभौ सेनापतिन्यायाधीशौ युवां काव्यैर्दंसनाभिः पितरौ पुत्रमिव सर्वं राज्यमावथुः ॥३४॥
भावार्थभाषाः - सर्वशुभगुणयुक्तो राजधर्ममाश्रितः धार्मिकोऽध्यापको युवा सन् हृद्यां स्वदृशीं विदुषीं सुलक्षणां रूपलावण्यादिगुणैः सुशोभितां स्त्रियमुद्वहेत्। या सततं पत्यनुकूला भवेत्, स्वयं च तदनुकूलः स्यात्। सामात्यभृत्यस्त्रीकः प्रजास्वाप्तरीत्या पितृवद् वर्त्तेत, प्रजाश्च पुत्रवत्। एवं परस्परं प्रेम्णा सहाऽऽह्लादिताः सर्वे स्युरिति ॥३४॥ अत्र राजप्रजाधर्मोक्तत्वादेतदर्थस्य पूर्वाऽध्यायार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गुणवान, धर्मात्मा, राजधर्माचे पालन करणारा, अध्यापक व पूर्ण युवावस्था प्राप्त झालेल्या पुरुषाने आपल्याला आवडेल अशा रूप व लावण्य इत्यादी गुणांनी युक्त विदुषी स्रीबरोबर विवाह करावा. पत्नी निरंतर पतीच्या अनुकूल असावी व पतीही तिच्या आवडीचा असावा. राजाने आपले मंत्री, नौकर, स्री व प्रजा यांच्याबरोबर सहृदय पित्याप्रमाणे वागावे व प्रजेने राजाबरोबर पुत्रासारखे वागावे. याप्रमाणे आपापसात प्रेमपूर्वक व आनंदाने राहावे.